एक नजर

एक नजर

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 मैं रसोई में काम कर रही थी और ड्राइंग रूम में घमासान हो रहा था सास नन्द और ससुरजी के बीच। घर बड़ा था, हर बात साफ-साफ सुनाई नहीं दे रही थी। नई-नई शादी हुई थी अतः उनके निकट जा कर पूरी बात सुनना अच्छा नहीं लग रहा था। मनुष्य स्वभाव से वंचित नहीं थी, कान उधर ही जा रहे थे।  बीच -बीच में आती कुछ आवाज से प्रतीत हो रहा था बात मेरे संदर्भ में है। एक दो बार मायका शब्द भी कानों में पड़ा, मन और भी डर गया। मैं रुआंसी हो कर कमरे में आ गई।

    थोड़ी देर में मेरी ननद कमरे में आई और बोलने लगी माँ की मत सुनो। उसको तो ऐसे ही रहता है। आजकल सब कोई सलवार कुरता पहनता है तुम भी पहनो। तुम्हारे पास नहीं है तो बताओ मैं अभी ले कर आती हूँ। पीछे से ही सासुमाँ आ गई। अपने घर का रिवाज अपने यहाँ चलाना। मेरे घर में मेरा ही चलेगा। ससुरजी ड्राइंग रूम से ही जोर जोर से बोल रहे थे - 'आपको क्या है। साड़ी में आग लग जाएगा मर जाएगी तो जिसकी बेटी है उसको दुःख होगा। आप दूसरी बहू ले आइएगा और जेल तो हम जाएँगे न।'

   मैं बिल्कुल घबड़ा गई कि मैंने तो साड़ी पहनने को लेकर कभी कोई शिकायत किसी से नहीं की। पिन के सहारे साड़ी भी अच्छा से ही पहन लेती हूँ। फिर आज ये घमासान क्यों?   

धीरे-धीरे सभी चुप हो गए। घर का माहौल शांत हुआ तो मेरे जान में जान आई। पर कमरे से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हो रही थी। लग रहा था सासु माँ सोचेंगी ये सब मेरी ही करतूत है। मैं कमरे में ही मैगजीन ले कर बैठ गई। थोड़ी देर में फिर माँ बेटी की आवाज कानों में आई। इस बार आवाज धीमी थी। अम्माजी बोल रही थी - 'ये सच है कि मुझे पता था कि ये मायका में साड़ी क्या सलवार कुरता भी नहीं पहनती थी। हमेशा फ्रॉक स्कर्ट ही पहनती थी। इसके लिए तो साड़ी क्या और सलवार कुरता क्या। सब कष्टदायक ही है।'

  "तो फिर तुम उसे सलवार कुरता क्यों नहीं पहनने दे रही हो? आजकल तो सभी पहनते हैं? दीदी बोल पड़ी।" 

  मैं देख रही हूँ कि इसे साड़ी पहनना नहीं आता। इतने सारे पिन के सहारे साड़ी पहनती है फिर भी दो घंटा होते-होते साड़ी नाच जाता है। प्लेट्स अपने स्थान से हट जाता है। पर मैं कुछ नहीं बोलती क्योंकि उसका कॉन्फिडेंस खत्म हो जाएगा। साड़ी पहनने को इसलिए कहती हूँ कि किसी भी पार्टी फंग्शन में जब पहनना चाहेगी तो कैसे पहनेगी। साड़ी लेकर किसी के सामने खड़ी हो जाएगी कि हमको पहना दीजिए। ये अच्छा लगेगा। पढ़ लिख कर नौकरी कर रही है। नौकरी से कॉन्फिडेंस आया तो पहनावे में भी कॉन्फिडेंस बना रहेगा तभी न हर पार्टी फंग्शन को सही तरह से इंजॉय करेगी। यदि हम साड़ी पहनने की बंदिश हटा देंगे तो उसे अच्छी तरह साड़ी पहनना कभी नहीं आएगा। नौकरी पर जब जाना शुरू करेगी तो फिर जो पहनना होगा पहनेगी।

तुमलोग को न लगता है कि हम बेटी और बहू में अंतर करते हैं। पर ऐसा नहीं है, हम दोनों को एक नजर से देखते हैं केवल समझाने का तरीका अलग अलग है।

     अम्माजी की बातें सुन दीदी भी चुप हो गई और मेरे आँखों से प्यार की बरसात होने लगी।

            


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