Pushpendra Kumar

Abstract

4.5  

Pushpendra Kumar

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एक लड़की भीगी - भागी सी

एक लड़की भीगी - भागी सी

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आसमान काले बादलों से घिरा हुआ था यूँ तो सुबह के 9 बज रहे थे पर आज सूरज की प्रचण्ड किरणें नदारद थी।बिलासपुर जाने वाली लोकल ट्रेन अपनी रफ्तार से ही आगे बढ़ रही थी, खचाखच भीड़ और लोगों के शोरगुल सावन के महीने मे भी गर्मी के एहसास दे रहे थे।ट्रेन की सीट पर बैठा 23 साल का अंकुश खिड़की से ठंडी हवाओं का आनंद ले रहा था। अपनी मास्टर डिग्री के लिए उसने गुरु घासीदास यूनिवर्सिटी को ही चुना था क्योंकि ये छत्तीसगढ़ का एकमात्र सेंट्रल यूनिवर्सिटी था।

उसे कॉलेज जाते 3 दिन ही तो हुए थे काश वो भी अपने दोस्तों की तरह बाइक से कॉलेज जाता तो कितना मजा आता, पर माँ की जिद के आगे उसकी कहाँ चले उनकी मेहरबानी से ही तो उसे 20 किमी का सफर लोकल ट्रेन मे तय करना पड़ रहा था।अब बादल गजरने लग गये थे और रिमझिम बारिश होने लगी गेट के पास खड़े लोग अंदर की ओर धक्का मुक्की के साथ घुसते जा रहे थे। बारिश की बूंदे खिड़की से अंदर आकर शीतलता प्रदान कर रही थी ।

ट्रेन अगले स्टेशन पर जाकर रुकी अब लोगों की भीड़ और ज्यादा बढ़ने लगी क्योंकि उतरने वाले से ज्यादा चढ़ने वाले थे। अंकुश की नजरें एकाएक बाहर गयी, एक लड़की जो जल्दबाजी मे दौड़ते हुए आयी और गेट पर आकर लटक गयी। कितनों की भीड़ मे अंकुश उसे झाँक -झाँक कर देखने लगा ,लाल रंग

की सलवार सूट, और कुछ ज्यादा ही मेकअप किये हुए उसका चेहरा, बारिश की बूंदो से वो तर बतर हो गयी थी, उसके लंबे और मोटे बाल जिसमे उसने जुड़ा किया हुआ था, उसका गोरा रंग देखने ही लायक था। वो सभी लोगों को देखकर मुस्कुराये जा रही थी उसके आने से वे लोग जो गेट पर ही खड़े थे अचानक से किनारे हो गये। वो लंबी साँस लेते हुए टिक कर खड़ी हो गयी, जैसे बारिश की बूंदों से वह सिहरने लगी थी।

अंकुश की निगाहों मे उसका रूप समाता ही जा रहा था वह सोचने लगा ' वाह क्या नजारा है ऐसा लग रहा, जैसे उसे ही देखता ही जाऊँ, अगर इतनी भीड़ न होती तो मै तुम्हारे साथ ही खड़ा होता और तुम्हारी जुल्फ सँवारता , हाय ये बारिश कितनी खुशनसीब है तू जो उसके गोरे रंगों को छूकर जमी पर टपक रही है ।'

 ट्रेन जोरदार रफ्तार से आगे बढ़ रही थी और इसी के साथ ही बारिश और बढ़ गयी। वो लड़की अब आँखों से ओझल होने लगी थी शायद भीड़ मे कहीं खो गयी। अंकुश ने भी आँखों को मूंदकर उसके करीब होने का एहसास किया और मन ही मन सोचने लगा ऐसी क्या कशिश है उसके चेहरे पर जो मै उसकी ओर खींचा ही चला जा रहा हूँ, काश आज उसकी आवाज मेरे कानों तक पहुँच पाती कितना मीठा बोलती होगी वो तो।

खयालों का सिलसिला चलता रहा अब ट्रेन रुकी, अरे स्टेशन तो आ गया उसने हड़बड़ाते हुए आँखे खोली सामने बड़े-बड़े अक्षरों पर लिखा उसे बिलासपुर जंक्शन का बोर्ड दिखाई दिया। अपना सामान बांधकर उतरने की लोगों मे होड़ सी लग गई वैसे तो अंकुश को आराम से उतरना ही भाता था, पर आज न जाने क्यों वह भीड़ को चीरते हुए निकल जाना चाहता था। शायद वह भीगी भागी सी लड़की उसे नजर आ जाये और उसकी बात आगे बढ़ जाये। बारिश अब भी थमने का नाम नही ले रहे थे अंकुश ट्रेन से उतरा और अपना छाता खोलते हुए बाहर ही मंडराने लगा। भले ही आज कॉलेज जाने मे देर हो जाये पर वो तो उस लड़की से मिल कर ही रहेगा, पर इस मूसलाधार बारिश और कितनो की भीड़ मे कैसे उसे ढूंढे। अब तो वह राम जी का नाम लेकर आगे बढ़ने लगा।तभी एकाएक उसे किन्नरों के झुण्ड ने घेर लिया

" हाय रे मेरे चिकने, दे निकाल पैसे और आशीर्वाद ले "एक किन्नर ने ताली बजाते हुए कहा।अंकुश के पास पैसे बहुत कम थे पर वह उनसे उलझना भी नही चाहता था और उसने अपनी जेब से 100 रुपये का नोट निकाला। 

अचानक से उसकी आँखें पथरा सी गयी, ये तो वही खूबसूरत लड़की थी जिसके लिये उसके अन्तर्मन मे हिलोरें उठ रही थी।

" क्या हुआ मेरे राजा ! चौंक क्यो गया। आज ट्रेन मे तो तू मुझे बड़े प्यार से देख रहा था अब क्या हुआ "उसने अंकुश के गालों को सहलाते हुए कहा।

" ठीक है, ठीक है देता हूँ "

ये स्पर्श अंकुश को काँटों की तरह चुभ गये वह झल्लाकर पीछे हटा। वो आवाज जिसकी कल्पना उसने वीणा के मधुर तानो से की थी वो इतने कर्कश थे। जिस चेहरे को देखकर ही उसने सपने सजा डाले क्या वो यही थे।पैसे मिलते ही किन्नरों का वह झुण्ड अंकुश को दुआएं देकर आगे बढ़ गया और अंकुश वहीं का वही खड़ा रह गया।

बारिश अब कुछ कम हुई अंकुश उन्हे दूर से ही देखता रहा सभी किन्नरों से वह कुछ अलग ही नजर आ रही थी कोई भी उसे देखकर नही कह सकता था कि वो किन्नर होगी। वो तो अब भी अंकुश को एक भीगी भागी सी लड़की नजर आ रही थी।

समाप्त।

✍️पुष्पेन्द्र कुमार पटेल



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