एक बागवान

एक बागवान

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अभी नर्सरी के पास गाड़ी रुकी ही थी कि एक सज्जन आगे बढ़ कर कर का दरवाजा खोल बड़े अदब से कहा - “मैम प्लीज कम”। फिर उसने आवाज लगाई - “सुधीर मैम को वो बढियाँ वाला गेंदा और गुलदाउदी दिखाओ         मैं उसे देखती रह गई। मैंने तो कुछ कहा नहीं फिर ये कैसे जाना कि मुझे गेंदा और गुलदाउदी के फूल पसंद है। बेवजह टोकना उचित नहीं लगा। मैं आगे बढ़ कर फूलों को देखने लगी। इस बार गेंदा गुलदाउदी के साथ मैंने कुछ अन्य फूल भी लिए। फूलों को गाड़ी में रखवा मैं बिल बनवा रही थी तो मैंने मार्क किया गाड़ी खोलने वाला सज्जन कुछ दूर खड़ा हो बड़े ध्यान से कभी मुझे कभी मेरे कार को देख रहा था। मैं उसे नजरअंदाज कर गाड़ी की तरफ बढ़ गई। अभी कार में बैठने ही वाली थी कि पीछे से आवाज आई -'सुक्ता' चौंक कर पीछे देखा। ये वही सज्जन थे। नजदीक आकर उन्होंने उतने ही अदब से पूछा - “मुझे नहीं पहचानी सुक्ता ..?” 

    प्रत्युत्तर में तत्काल मुख से निकला नहीं...।

“ मैं सुनील….”

एक छोटा सा जवाब। मेरे चेहरे पर पहचान की कोई रेखा नहीं उभरी तो उसने फिर कहा - “ आठवीं कक्षा का सुनील, सुनीला का भाई।”

    अब मेरे मानस पटल पर पुरानी बातें दौड़ने लगी। बातें याद आतें ही मुस्कान की रेखा चेहरे पे जगह बना ली। सुनीला कहाँ है ..? “बहुत दूर - ब्रिटेन”

और तुम यहाँ..?

“हाँ, मैंने अनेक नौकरी की पर कोई रास नहीं आई। फिर नर्सरी का अपना बिजनेस शुरू किया। अब तो पूरे क्ष्रेत्र में छा गया हूँ।” 

उम्र का बदलाव तो मुझमें भी आया, फिर तुम मुझे कैसे पहचान गए ?

    चेहरे की कुछ रेखाएँ बदली है, शौख तो अभी भी कायम है। मैं दो साल से तुम्हें देख रहा हूँ, इस मौसम में आती हो, गेंदा और गुलदाउदी के पौधे लेकर चली जाती हो। जब कि मेरे यहाँ दूर-दूर से लोग गुलाब और डहेलिया के लिए आते हैं।

  इतनी बातें हुईं तो मैंने पूछ दिया - “मेरे बिना बोले तुम कैसे समझे कि मुझे गेंदा और गुलदाउदी ही चाहिए ?

शरारत भरी मुस्कान के साथ उसने कहा - “ तुम्हारे गार्डन से गेंदा और गुलदाउदी चुराने की इतनी बड़ी सजा मिली थी कि मैं उस दिन से आज तक गेंदा और गुलदाउदी के पौधे लगा ही रह हूँ।”       मैं चार दशक पूर्व पहुँच गई। पापा का बड़ा सा सरकारी क्वाटर, जिसमें काफी बड़ा हाता था। लम्बी सड़क के बाद गेट। सड़क के दोनों तरफ मैं बड़े जतन से एक गेंदा और एक गुलदाउदी के पेड़ हर साल लगाती थी। मेरे फूलों को कोई न तोड़े इस लिए जाड़े की ठंड भरी सुबह में भी बाहर छुप कर बैठी रहती। जब कोई फूल तोड़ने आता तो उसे बहुत बुरी तरह डांट लगाती। यदि छोटे बच्चे होते तो सजा स्वरूप उनसे कुछ फूल के पेड़ भी लगवाती। एक बार सुनील भी फूल तोड़ते पकड़ा गया था। मैंने कोई किफायत नहीं बड़ती। उसे भी सजा स्वरूप फूल के पेड़ लगाने पड़े थे। जगह छोटी हो या बड़ी, कोई लड़का लड़की से डांट खा जाए तो ये चर्चा का विषय हो जाता है। वहाँ भी ऐसा ही हुआ। सुनील के साथ-साथ उसकी बहन सुनीला भी को बहुत बुरा लगा। उसने तो मुझे बहुत खड़ी -खोटी सुनाई। पर मैं अपने बात पर अडिग थी - ‘यदि फूल का शौख है तो फूल लगाए।’ दूसरे दिन सबेरे जब मैं उठी तो देखी दस गमला गेंदा और गुलदाउदी के बाहर रखे थे जिस पर एक पर्ची लगा था अगली बार के लिए एडवांस। मुझे बेहद गुस्सा आया। पर किसी का नाम नहीं था, समझते हुए भी मैं कुछ नहीं कर सकती थी।

    “हैल्लो… कहाँ खो गई..?”

मैंने कितना कस कर तुम्हें डांटा था - “फूल का इतना शौख है तो लगाना सीखो।” तब मैं कहाँ समझ पाई थी कि फूल लगाने के लिए घर में थोड़ी सी भी जगह आवश्यक है। अब समझती हूँ जब बड़े हाता वाले घर से सिमट कर छोटे से फ्लैट में रहने लगी। फूल पसंद है अतः जाड़ा में कुछ गमले ले जाती हूँ। उनका रख रखाव अच्छे से नहीं हो पाता अतः समय के साथ उन्हें बदलना पड़ता है है    “ समय के साथ गमले ही नहीं आदमी के स्वभाव भी बदल जाते हैं। तुम्हारा झुकाव अभी भी फूलों के प्रति है पर अब वो तेवर नहीं हैं जिसकी वजह से मैं बागवान बन गया।”

      


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