Meeta Joshi

Tragedy Inspirational

4.8  

Meeta Joshi

Tragedy Inspirational

दर्द

दर्द

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"क्या डॉ रत्ना जी से बात हो सकती है ?"

"रत्ना...तुम्हारा फ़ोन है । "

"कह दीजिए आज मेरा ऑफ है। "

"रत्ना तुम्हारी समाज सेवी संस्था से है। ओल्ड-ऐज होम से है।

"हेलो रत्ना स्पीकिंग.."

"नमस्कार मैम । माफ कीजीएगा,आपको गलत समय परेशान किया। मैम एक क्रिटिकल केस है। नई सदस्या हैं। पिछला एक महीना हुआ है यहाँ आए। कल से अचानक व्यवहार में बदलाव महसूस किया आज कंट्रोल के बाहर हैं। आप अगर एकबार जल्दी आ सकें तो....। "

"जी पहुँचती हूँ...। "

रत्ना एक प्रसिद्द डॉ. हैं। बहुत सी समाज सेवी संस्थाओं से जुड़ी हैं । सभी उनके व्यवहार और उनकी विद्वत्ता के कायल हैं। कहते है अपने मरीज का आधा इलाज डॉ का व्यवहार कर देता है ,ऐसी ही हैं डॉ. रत्ना अपने पेशे व रिश्तों के साथ इंसाफ करने वाली।

"आइये डॉ साहब उधर है उनका कमरा...। "

"सर नया सदस्य है तो किसी भी डॉ. को बुला लिया होता। "

कमरे के बाहर से चीखने-चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं। आवाज़ सुनते ही रत्ना के पाँव वहीं रुक गए । एक परिचित सी आवाज़ थी और दर्द कुछ पहचाना सा। अपने कदमों को धीरे- धीरे बढ़ा वो उस बंद कमरे में पहुँची। दरवाजा खोलते ही जैसे ही रत्ना की परछाई कमरे के अंदर दिखाई दी,महिला पेशेंट ने अपनी चिल्लाने की आवाज़ तेज कर दी। उस चिर-परिचित आवाज़ के दर्द को महसूस करती रत्ना कमरे में अंदर चली गई। आश्चर्य की बात ये थी कि इतना उन्मादी इंसान, जिसने पूरा अस्पताल सिर पर उठा रखा है उसका कमरा बिल्कुल व्यवस्थित था। करीने से चद्दर बिछी हुई ,कपड़े तह कर रखे हुए थे। चारों तरफ साफ-सफाई थी। वो घुटनों के बीच मुँह ढक जोर-जोर से चिल्ला रही थी,"वो आ गया,आ गया मुझे लेने। " और चिल्ला-चिल्ला कर उस आवाज़ से बचने का प्रयास करतीं।


"मैम आज सुबह से बुरे हाल है किसी को पास नहीं आने दे रही हैं। हमने सोचा पकड़ कर एक जगह बांँध देते हैं पर न तो खुदको न किसी और को नुकसान पहुँचा रही हैं। "

"ऐसा करते हैं इंजेक्शन दे शांत करने की कोशिश करते हैं थोड़ा खुदको भी आराम मिलेगा। "पेशेंट को इंजेक्शन देने के बाद रत्ना ने उन्हें बिस्तर पर लेटाने को कहा। खुद हाथ धो जैसे ही पलटी, पेशेंट के जाने-पहचाने चेहरे को देख चौंक गई। पास जाकर पहचानने की कोशिश की तो आंँखों से आँसू छलक पड़ा।

"कौन है ये !कहाँ से आई हैं!लेकर कौन आया ?"

"मैम अभी दो महीने पहले ही आई है भरा-पूरा परिवार है बेटे के साथ आई थीं। वो बहुत समझा रहा था पर जिद्द पर अड़ी थी घर नहीं जाना। इतनी सौम्य हैं। जबसे आई हैं किसी से कोई मतलब नहीं बिल्कुल शांत बस वो और उनका कमरा भला। जब भी बाहर आती हैं पेड़-पौधों में पानी देना। जहाँ गंदा दिखा साफ सफाई करना। "

खुदको विश्वस्त करने को रत्ना ने पूछा,"कहाँ की रहने वाली हैं ?"

"जी,जबलपुर। "

रत्ना की सोच पर मोहर लग गई थी। वो उनके कमरे में जा उनके होश में आने का इंतजार करने लगी ।

वही शांत चेहरा सफेद बाल हल्के रंग की साड़ी और गुलाबी बदन आज भी उनमें उतना ही आकर्षण था जितना किसी समय हुआ करता। और चिर-परिचित दर्द को तो उसने सालों साल सुना था या ये कहूँ की बचपन से सुनती आई थी आज उस शांत चेहरे में बस एक कमी थी। बड़ी सी लाल बिंदी न थी। हो सकता है जिसके नाम की लगाती थी वो न रहा हो। उन्हें देख उसे अतीत की विस्मृत,किंतु सुहानी यादें मानस पटल पर दौड़ने लगीं

"आंटी गौरव है ?"

"अरे आंटी नहीं हूँ मैं तेरी,दादी बोल। "

"जी दादी। "

"जा अंदर चली जा । "

धीरे-धीरे हम बच्चे बड़े होते गए।

अचानक एक दिन "वो आ गया..वो आ गया" कि आवाज़ें तेज होने लगीं..फिर बुरी तरह चिल्लाना और कराहना।

"गौरव क्या हुआ दादी को कोई प्रॉब्लम!"

"छोड़ यार। ये तो दादी का आए दिन का नाटक है। "

"इलाज नहीं करवाया। "

"सब करवाया,पर जब खुद चाहो तब ही दवाइयां भी साथ देती हैं। पहले ये सब कम था,अब समय के साथ बढ़ता जा रहा है। तनाव है किसी चीज का,बाकी तो सारे सुख हैं। हम सब बच्चे दादी-दादी करते रहते हैं। सब उन्हें समय देते हैं। अच्छी हैं,जब तक हैं,अचानक पता नहीं क्या हो जाता है। डॉ. कहते हैं कुछ नहीं है बस सब मन का है। "

मैं बड़ी हो गई,गौरव से भी कम मिलना होता।

"वो सबके लिए करती और न करना चाहें तो बेटी को भी खास महत्त्व न देतीं उल्टा दादा जी को समझातीं ,"बहुएँ हैं। ये ही काम आएगी। बेटी-बेटी कर भविष्य खराब कर रहे हो।  जीवन भर मांँ और बहन का करते रहे,मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी। "

बड़े होते-होते रत्ना ये तो समझ चुकी थी की परेशानी दादाजी से हैं और जब बेटों को अपनी-अपनी पत्नियों और बच्चों के लिए समर्पण से करते देखती हैं तो शायद उनके दिल में एक टीस उठती। जिसे दबाने को चीखती-चिल्लाती हैं।

समय बीत गया। हम बच्चे बारहवीं कर सब अपने रास्ते हो लिए। वो शहर छोड़े सालों हो गए। पर दादी का सौम्य चेहरा और उनकी आवाज़ का दर्द रत्ना को साइकोलॉजिस्ट बनते समय भी रह-रहकर याद आता। नहीं जानती थी इस रूप में मिलना होगा।

इतने में नर्स ने कहा,"पेशेंट को होश आया गया मैम। "

मुस्कुरा बैठ गईं ।

"कैसी हैं आप ?"

अपनी प्यारी सी आवाज़ में बोलीं,"आपको परेशान किया माफ कीजिएगा। पता नहीं क्या हो जाता है। "

"आप भरा-पूरा परिवार छोड़ यहाँ क्यों आईं ?"

"क्योंकि वहाँ मेरी तड़प सबके लिए सामान्य हो चुकी थी। बच्चे अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो चुके थे। मेरा चीखना- चिल्लाना सबके लिए आम था। एक ये थे जो डांटते थे। मुझ पर चिल्लाते,हंसते हुए बोलीं,"नाटक मत कर कहते थे। "पर मुझे ये सोच अच्छा लगता था कि इनका सारा ध्यान मुझ पर है । ये चले गए । दुनियाँ छोड़,यहाँ भी मेरी इच्छा न पूछी। अकेला छोड़ गए। "

"आप लोगों को कष्ट हुआ माफी चाहती हूंँ। "

रत्ना ने हाथ पकड़ लिए,"ऐसा मत करिए आप तो मेरी दादी की उम्र की हैं। आपके बेटे को बुलवाया है। साथ चली जाइएगा। वहाँ पूरा परिवार है आपका। "

हँसीं,"मेरा नहीं मेरे बच्चों का। मेरा परिवार तो कभी बस ही न पाया। ये जीवन भर दूसरों के लिए जीते रहे और मैं..तड़पती रही। जब तक शांत रही कोई कद्र नहीं की अपने बच्चों को कष्ट झेल पालती रही और आज सब बड़े हो गए उनके अपने परिवार हैं । बच्चे मौजूद होते हुए भी मुझसे दूर हैं। अपनी गृहस्थी है। खुश हूंँ कि पहले अपनों का सोचते हैं। लेकिन मेरा क्या ?मेरा कौन सोचेगा ?समय रहते जब तक मैं करती रही मेरी किसी ने ना सोची। मेरी तड़प जब वो ही न समझ सके तो ....। "कह आँसू पौंछने लगी।

भारी मन से रत्ना घर आ गई। बचपन की यादें एक-एक कर आंँखों के आगे घूमने लगीं।

गौरव की मम्मी के मुँह से कही बात दिमाग से हट ही नहीं रही थी,"कितना अच्छा आचार डालती है। साफ सफाई वो तो हम बहुओं को देखने की जरूरत भी नहीं। मिठास भरी बोली, सब कुछ होते हुए भी न जाने ऐसी क्या पीड़ा है जो उन्हें अंदर ही अंदर खाए जाती है। ज्यादा परेशानी तो पापा से है। लगता है उन्हें परेशान करने के लिए ये सब करती हैं। कभी दया आती है तो कभी डर लगता है। "

अगले दिन जब वो पेशेंट को देखने गईं तो वो बिल्कुल नार्मल थीं पौधों को पानी दे रही थीं।

"आइये आंटी आपका चेक अप कर दूँ। "

कर्मचारी ने आकर कहा,"इनके घर से कोई आए हैं। "

गेट खोलते ही पिता के बराबर लंबी चौड़ी कद काठी वाले एक प्रौढ़ खड़े थे। चेहरे पर वही मुस्कान लिए," क्या मैं अंदर आ सकता हूँ ?"

"जी" कह रत्ना ने उनके पाँव छू लिए।

"आप...अगर मैं गलत नहीं हूँ तो पाठक जी की...। "

"जी अंकल,मैं रत्ना। कैसे हैं आप सब!"

बेटे से औपचारिक मुलाकात के बाद वो चुप-चाप उठकर चल दीं।

"आप इन्हें घर क्यों नहीं ले जाते। "

"स्वेच्छा से आई हैं। वहाँ बहुत जल्दी -जल्दी उग्र हो रही थी। यहाँ जबसे आईं...."

"जी ये लोग बता रहे थे। परसों अचानक चिल्लाने लगीं वो गया...."

"परसों पापा को गुजरे सात महिने हो चुके हैं। कहती नहीं पर बहुत याद करती हैं उन्हें। मन में है कि मुझे यहाँ भी तकलीफों के साथ अकेला छोड़ गए। हम कितना भी समय दें जब तक मूड होता है बैठी रहती हैं नहीं फिर तनाव में चीखने-चिल्लाने लगती हैं। "

"अंकल इन्हें साथ ले जाइए। तन से नहीं मन से प्रेम दीजिए। अपना समय दीजिए उनकी तड़प जब कोई सुनने वाला न था तो उन्होंने हालात से भाग यहाँ आने का मानस बनाया। "

"लेकिन हम सब तो...समय देते ही थे। "

"अपनी अपनी फुर्सत के हिसाब से बात करते थे न। जब वो तड़पती थीं तब अकेली होती थीं। ज़िन्दगी किसकी-कितनी है कोई नहीं जानता। अपनी तरफ से उन्हें घर में एक अहम कोना दीजिए जहाँ वो कभी अकेली न हों।

ठीक है, दादी जी। घर जाकर अपनी रत्ना को भी याद कीजिएगा। "

बेटा माँ को जिद्द कर घर ले गया। रत्ना दूर तक उन्हें देखती रही।

सच किसी की तड़प को दिल से महसूस कर उसे प्यार व अपनापन देने से सामने वाले की तकलीफ कम हो जाती है।


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