दीवार के पार
दीवार के पार


उसके खूबसूरत काले लिबास को देखकर किसी ने पीछे से कहा ‘‘काश इस खूबसूरती को भी अपने अंदाज़ में जीने का मौका मिलता’’। सबकुछ है मैडम के पास फिर भी आंखें मानो रीती सी रहती हैं। आगे बढ़ते उसके कदम वहीं थम गये, मानो चोरी पकड़ी गई हो, जैसे किसी ने उसके मन के भीतर छिपे अंधेरे को पढ़ लिया हो और अब उसका किरचा-किरचा उड़ा देना चाहता हो। मन किया इतनी भीड़ छोड़कर कहीं चली जाये जहां कोई न हो सिर्फ और सिर्फ उसका वजूद और प्रकृति की छांव तले कोई अपना सा, वो जोर-जोर से चिल्लाये रोये और पूछे-जब सबकी तरह मुझे भी एक ही जीवन मिला है तो फिर जीने का हक क्यों नहीं मिला? मैं भी जीना चाहती हूं उन लम्हों को जिनमें हंसी हो, मुस्कुराहटें हों कोई मेरी भी तारीफ सिर्फ मेरे लिए करे, कोई ऐसा जिसे मेरी बाहरी दुनिया की चमक से परे सिर्फ मेरे दिल की चमक मेरी आंखों का नूर देखने की चाहत हो। जैसे तैसे घर आकर सीधी अपने कमरे में औंधेमुह गिर पड़ी, समझ नहीं आ रहा था कि रोने की कोशिश कर रही थी या सोने की? लेकिन सांसों की सरगम के साथ दिल धड़कते हुए गा रहा था-लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है, वही आग सीने में फिर जल पड़ी है!
सबकुछ कितनी जल्दी-जल्दी उसके जीवन में घटित हुआ था, पढ़ते-पढ़ते विवाह हो गया, पति के प्यार ने गोद भर दी और फिर इससे पहले कि वह जीवन को पूरी तरह समझकर अपने लिए कुछ पल निकाल कर जी पाती, जीवनसाथी ने संसार से रूखसत लेली। ऊपरवाला जुदाई का इतना बेदर्द तरीका भी निकाल सकता था उसे अंदाजा नहीं था, कि एक तरफ वह दुर्घटना में दर्द से तड़प रही थी तो दूसरी तरफ जीवनसाथी ने इस संसार के हरदिल अज़ीज के साथ ही उससे भी बिना कुछ कहे मुह मोड़ लिया। जब उसे ये खबर मिली तो अल्हड़ उम्र की बेला में उसे समझ ही नहीं आया कि रोये, चुप रहे जिये कि जीना छोड़ दे। किसी की मौत के साथ कोई नहीं जाता सो उसे हर हाल में जीना ही था।
एक बेरंग बेनूर सी जिंदगी की शुरूआत हो चुकी थी जहां हरपल उदासियों और तनहाइयों का मौसम उसे घेरे रहता। घरवालों के प्रयास और माता-पिता की मजबूत पकड़ ने उसे थामने का प्रयास किया तो वह सरकारी नौकरी में अच्छे पद पर चयनित हो गई। लेकिन राजनैतिक गतिविधियों में उलझे परिवार की परिस्थितियों ने कुछ ऐसा पासा पलटा कि वह एक सार्वजनिक छवि बन गई। ये सार्वजनिक छवि ऐसी थी कि उसे हर वक्त दूसरों की आवाजें सुनाई देने लगीं, जिसमें किसी को भी उससे सरोकार नहीं था बल्कि उसकी साफ-सुथरी छवि से होने वाले फायदों से ही सरोकार था। दिनभर इंसानी बस्ती में घिरी रहकर के उसने एक ऐसा आवरण ओढ़ लिया था कि उसे कोई भेद न सके और रात्रि के अंतिम पहर में अपने कमरे में लगभग बेहोशी की हालत में पहुंच कर अगले दिन जागने के लिए सो जाती। मुस्कुराती तो थी लेकिन आंसू छिपाने के लिए, परिवार और समाज की हर खुशी में सम्मिलित होती, साथ खड़ी होती किंतु अपने मन पर पत्थर रखकर। मन का ये झरना आंसुओं के रास्ते अपने कमरे की चारदीवारी में कभी-कभी फूट पड़ता तो सुबह उठकर काजल और मेकअप से उसे ढक लेती। लोग कहते उसकी आंखें रहस्यमयी लेकिन खूबसूरत हैं, लोग कैसे जानते दर्द आंखों को कितने गुलाबी और लाल डोरे दे जाता है। हर रात बस एक ही गीत गूंजता था-न कोई उमंग है न कोई तरंग है मेरी ज़िंदगी है क्या इक कटी पतंग है.....
आज इतने वर्षों बाद न जाने क्यों उसे अपनी पीठ पर अजीब सी चुभन महसूस हुई मानों कोई लगातार बड़ी शिद्दत से उसे ताक रहा हो। उसके पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई, नहीं ये संभव नहीं था क्योंकि अब वो एक सार्वजनिक चेहरा थी, उसके आस-पास भीड़ थी, मीडिया उसकी खबर रखता था, सबसे बड़ी बात कि वह विधवा थी और मां भी। उसे कोई हक नहीं दिया था समाज ने अपनी जिंदगी जीने का। पर कुछ तो था किंचित जीवन की लालसा, एक पल अपने लिए मुस्कुराने की हसरत, किन्हीं आंखों में सिर्फ अपने लिए कुछ लम्हे तलाशने की अधूरी हसरत। उसकी हसरतें अरमानों के झूलों पर पेंग मारने लगीं, उसे एक बार फिर आंखों में काजल और माथे पर बिंदी सजाने का मन किया। किसी पर एतबार का जज्बा जागा और किसी की उपस्थिति उसे अच्छी लगने लगी। उसकी रूकी हुई जिंदगी में कुछ गुलाबी रगत भरने के लिए दिल मानों फिर से बहक कर धड़कने लगा। धीमी सी सुरीली हवायें मानों अपने तारों पर गीत गाना चाह रही थीं-आज फिर जीने की तमन्ना है....
कहते हैं कि अहसासे मुहब्बत खुद को भले ही बाद में हो लेकिन फिजाओं में उसकी महक पहले ही घुल जाती है और इसी का फायदा उठा कर लोग, समाज, परिवार, परंपरा सब ऐसा जकड़ते हैं कि ढाई अक्षर पूरे होने से पहले ही अधूरे हो जाते हैं। वो भी अछूती नहीं रही और समाज ने, परिवार ने उसे अपनी बेड़ियों में जकड़ लिया। उसके पास बेनूर जीवन जीने के सिवा कोई रास्ता नहीं था और वो फिर से चल पड़ी उसी रास्ते जहां लिखा रहता है-औरत तेरी यही कहानी।
सपनों में डूबते उतराते उसके नैन बिन बादल बरस रहे थे, उसे पता ही नहीं चला कि कबसे चुपचाप सपना उसके इस जज़बाती रूप को अपने कैमरे में कैद कर चुकी थी, हां वही तो थी एक सखी जो खुद भी औरत थी और देख पा रही थी मन की दीवार के उसपार जहां लिखा था-बुझा सका है भला कौन वक्त के शोले,ये ऐसी आग है जिसमें धुआं नहीं मिलता। अतीत की दीवार के उसपार से इसपार आकर भी दिल की हर धड़कन सवाल किये जा रही थी कि आखिर जब मर्दों को अपनी जिंदगी जीने का हक है तो औरतों को क्यूं नहीं आखिर हम दीवार के उसपार और वो इसपार क्यूॅं? दूर कहीं मुकेश जी आवाज मानों उसके दर्द को शब्दों में ढाल रही थी-दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई तूने काहे को दुनिया बनाई?