Bhawna Kukreti

Drama Romance

4.8  

Bhawna Kukreti

Drama Romance

धीर मना

धीर मना

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बीते दिनो एक भारी दुख से गुजरी थी जिंदगी, एक तरफ उसकी माँ का साया उठा था सर से दूसरी तरफ से ससुर जी व देवर जी चल बसे थे। सास जी और देवरानी जी मय परिवार साथ/पास रहने लगीं। बहू होने के नाते तमाम नाते-रिश्तेदारी निभाने का जिम्मा भी अब उसके ऊपर था या कहें उसने खुद ही ले लिया था। सब खुद पर ले लेने का स्वभाव उसे माँ से ही मिला था।


धीरज उसके इसी स्वभाव पर मोहित हुआ था। जिद पकड़ ली, ब्याह करूंगा तो मानसी से ही। उसे सिर्फ अपने लिए "जीवन साथी" ही नही बल्कि उसके कुटुम्ब को बांध कर रखने वाली "बहू" भी चाहिये थी, उसके हिसाब से "माँ" तो मानसी को बाय डीफौल्ट "बेहतरीन" होना ही था। सो सारा गणित समझा कर एड़ी चोटी का जोर लगा मानसी के और अपने परिवार को मनाया। मानसी की किसी ने न सुनी और ना ही उसने ज्यादा प्रतिरोध ही किया जैसे खुद को छोड़ दिया था नियति के हवाले। उसने जीवन में अनजाने ही एक मन्त्र मन में रख लिया था "ईश्वर ने कुछ अच्छा ही सोचा होगा।" शादी के साथ साथ मायके वालों ने भी उस से मुक्ति पाली सिवाय उसकी माँ के जो अन्त समय तक उसको "इमोशनल सपोर्ट" देती रहती थी।


धीरज जैसा नाम था वैसा ही इन्सान भी था। उसका व्यक्तित्व भी बहुत सौम्य और प्रभावी था। न केवल सूरत में ही बल्कि सीरत में भी मानसी को वो खुद से कहीं अव्वल दर्जे का लगता था। शायद विवाह के समय परिस्थितियों में उसकी रजा होती तो वो सातवें आसमान में होती। मगर फिर भी आधी-अधूरी सी वो संतुष्ट तो थी ही। कभी दोनो किसी समारोह में जाते तो लोग उनकी जोड़ी को निहारते रहते, धीरज वहण भी मानसी के आगे-पीछे लगा रहता। मानसी को ये सब बड़े बुजुर्गों के सामने अटपटा लगता मगर धीरज कभी-कभी अपनी उमंग नही छुपा पाता था। उसे तो वो मिला था जो उसकी चाहत थी।


ईश्वर ने भी जैसे मानसी के समर्पण को सहर्ष स्वीकार किया था, कुछ सालों में ही उसे मातृत्व सुख मिला। समय बीत रहा था और एक गृहस्थी फल फूल रही थी। धीरे-धीरे धीरज और मानसी अपने अपने कर्तव्यों में गुम होने लगे। धीरज को एक दिन किसी काम से अपने सर्टिफ़िकेट चाहिये थे। उसने सारे कागज खंगाले, उसे मानसी के सर्टिफ़िकेट और एक पूरानी डायरी मिली। वो उन्हे देखता हुआ मानसी के पास पहुंचा।


"ओह माय गॉड!!! मानसी ये क्या है?!"


मानसी वरद को छत पर नहला रही थी, धीरज की आवाज में उठे कौतुहल को सुन वो वरद को लिए कमरे में आई। धीरज भी उसके पीछे पीछे कमरे तक वापस चला आया।मानसी चुप थी, वो नीची नजरों से धीरज के चेहरे को पढ रही थी, सर्टिफिकेट्स के नीचे उसे वो भूरी डायरी दिखी, "ये डायरी!!! इसे तो मैंने ईशा को दे दिया था, हे ईश्वर!!" तेज़ी से धड़कते दिल को फिर ईश्वर के हवाले कर वो वरद को तैयार करने लगी। धीरज हतप्रभ हो उसके सर्टिफ़िकेट पढे जा रहा था। "तुम तो छुपी रुस्तम निकली यार! फ़र्स्ट, फ़र्स्ट, फ़र्स्ट, फ़र्स्ट, बेस्ट पैन्टर, ब्लूमिन्ग राईटर, बेस्ट ऐक्ट्रेस, डीसीप्लिन इंचार्ज, कुकिंग क्वीन, मिस कम्पैशनेट, मिस फ्रेशर, पैडागोज़ी प्रेसीडेंट, कंप्यूटर विजार्ड..... उफ्फ़...” धीरज एक साँस में सब बोलता चला गया, "और ये क्या है ओर्गन डोनर!!!!!" एक हॉस्पिटल के कार्ड को थोड़ा गुस्से में दिखाते बोला।


"मनूऽऽऽऽऽ!! कहां हो जी? आज भोजन बनेगा?!!"


सास जी की आवाज पर मनु यानि मानसी वरद को गोद में लिए धीरज को देखने लगी। धीरज ने आँखों से ही कहा, "जाओ" और वहीं कुर्सी पर बैठ मनु की डायरी पढ़ने लगा। मनु जब खाना बना कर लौटी तो देखा धीरज सर पर हाथ धरे आंख मूँदे कुर्सी पर ही था उसकी डायरी धीरज के सीने पर धीरे-धीरे धड़कन की लय पर ऊपर नीचे हो रही थी। मनु ने जैसे ही डायरी हटायी धीरज ने उसका हाथ पकड़ लिया और आँखों में देखा। बोला, "एक तरफ सर्टिफ़िकेट और ये एकतरफ ये सब मना!!!" धीरज परिवार के अन्य सदस्यों से अलग अंतरंग क्षणो में उसे "मना" ही कहता था। मना वहीं सर झुकाये खड़ी रही। धीरज उसे चुप देख लगभग चीखा, "बस यूँ ही हमेशा खामोश हो जाना, गूँगी गुड़िया हो या कठपुतली हो? क्या हो तुम?” पहली बार धीरज को ऐसे फूटते देखा। उसकी आवाज सुन भागती-भागती सास जी आ गयीं। वरद भी नींद से जाग बैठ गया।


"का रे का हुआ, काहे इत्ता जोर से बोले हो? "


”आप जाईये वापस।" धीरज कभी सास जी से उंची आवाज में नही बोला था। सास जी चुपचाप वरद को लिए लौट गई। उस रात पहली बार धीर और मना अकेले, धीमी नीली रोशनी में एक दूसरे से दिल से बात कर रहे थे। मना, धीर के सीने पर सुबकते हुए अपने डरावने अतीत को कह रही थी। दोस्ती और रिश्तों के नकाब के पीछे कितने घिनौने चेहरों से वो बाल-बाल बची थी, शायद ईश्वर ने ही उसे हर बार बचाया था मगर, "वे करीबी लोग और वो ही क्यूँ?" इस बात ने उसकी आत्मा को छलनी और विश्वास को मिटा दिया था। धीर उसे सुनते और समझाते उसके आँसूओं को बटोरे जा रहा था, "तुम खुद को क्यूँ दोषी मान रही हो, तुम निर्दोष हो मना। अब मैं हूँ ना साथ तुम्हारे। अपना आत्मविश्वास वापस लाओ!!” वो सुबकते-सुबकते कब सो गयी पता ही नही चला।


अगले दिन से धीरज को जैसे जुनून सवार हो गया। वो बहुत बेचैन सा रहने लगा। मनु को उसकी बेचैनी बहुत गहरे असर कर रही थी मगर अब वजह क्या है वो नही समझ पा रही थी फिर वह धीरज को पूछे कब? धीरज सुबह निकलता देर रात लौटता और लौटते अपनी माँ और वरद के साथ समय बिताता। सोते समय भी वह दिल से पत्नी का फर्ज निभाती, यहां भी धीरज का मन उसे कहीं और लगता। बात बात पर अब वो मना से झुंझला जाता। कभी उसके साधारण पहनावे को लेकर टोकता, दिन भर घर में ही रहने पर, "आलसी हो तुम,सब बैठे-बैठे चाहिये मैडम को!", "साज सिंगार भी करती हैं औरतें! एक ये हैं, पार्लर जाने को भी किसी शादी का कार्ड चाहिये इन्हे।" मगर उसका सादापन ही तो था जिस पर धीरज रीझा था? उसका दिल रो पड़ा।


इधर सास जी भी धीरे धीरे उसके हाथों से घर के काम लेने लगी थी। पहले घर का सारा काम मना ही करती थी मगर अब उससे सब छुड़ाया जा रहा था। ये उसके मुताबिक बहुत बुरा था, इन सब बातों से मना का दिल बहुत दुखता। अपनी जिस माँ को आदर्श मान वो जिए जा रही थी उनके साथ तो ऐसा बर्ताव कभी नही हुआ फिर ये सब उसके साथ क्यूँ? कहां क्या गलत किया उसने ? वो दिन भर काम करते-करते इसी उधेड़बुन में रहती।


फरवरी की एक सुबह धीर ने मनु को अपने कमरे में बुला कर कहा, "बहुत हो गया, कुछ समझती नही तुम, अब बाहर निकालना ही पड़ेगा।" मनु को समझ नही आया। धीरज के स्वर को सुन अब उसकी आंखों में आँसूं छलछलाने लगे। धीरज ने उसके आगे एक बड़ा सा पीला लिफ़ाफ़ा किया, "इस पर साइन कर देना। कल जमा कर दूँगा।" सास जी सामने बैठी टीवी देख रहीं थी। बोली, “हम भी राज़ी हैं, कब तक कोई इशारा दे, एकदम्मे खाली मगज की है!” मनु समझ नही पा रही थी। इतने साल बाद भी तो वो धीरज से सीधे कुछ पूछने में झिझकती थी। ऊट्पटाँग खयाल दिलो दीमाग में कौंधने लगे। कहीं उसने गलती तो नही कर दी अतीत को बता कर? एक बार भी नहीं सोचा की धीरज को कैसे लगेगा? पुरुष ही तो है वो? सर्वगुण सम्पन्न ये और मैं? मैं कहां टिकति हूँ इनके आगे? डरते-डरते उसने लिफ़ाफ़ा खोला।


देखा नौकरी का, "आवेदन पत्र" था। उसने धीरज को देखा वो वरद को हवा में उछाल रहे थे और वरद खिलखिला रहा था। मना का दिल किया कि वो धीर से जाकर लिपट जाए मगर सास जी वहीं थीं। इधर जैसे सास जी ने मना को पढ लिया, "चलो वरद घुम्मी करके आएं।" सास जी वरद को ले कर चली गयीं। धीर, मना को बुत के जैसे खड़ा देख पास आया, “कठपुतली जी आपके तार छेड़ूँ तो ही आप हरकत करेंगी?” मना पहली बार खुद से धीर की बाहों में समा गयी, "आप मुझे सताना नही छोड़ सकते क्या?"


”नहीं, आखिरी साँस तक नही,” धीर ने और भी कस कर मना को समेट लिया।  


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