डॉक्टरी जमात
डॉक्टरी जमात


घर के दरवाजे पर टंगी नाम-पट्टिका पर ‘डाॅक्टर‘ नाम चढ़ते देखना, सारे मुहल्ले वालों के लिए काफी आश्चर्यजनक घटना थी।
वैसे गंगाधर जी के भाषा-ज्ञान का उतना अनुभव न होता, तब तो उतनी ही सलवटें हमारे माथे पर भी पड़तीं। परंतु हम अनुभवी थे। हकीकत जानते थे। उनकी विद्वत्वता पर पूरा भरोसा था। आखिर होता भी क्यों न? दो-चार पोथियाँ तो हम ही से लेकर स्थायी उधार कर गये थे। उनमें से एक लौटाने का मौका भी आया था। बिल्कुल चपल प्रतिक्रिया की थी उन्होंने।
बस पता ही चला था उन्हें कि हमारे गाँव वाले भतीजे को किताब के आठ-दस पन्नों का ज्ञान बटोरना है। उसी दिन झाड़-पोछकर निकाल सामने रख ली थी। वरना उससे पहले तो बिल्कुल सहेजकर रखी थी हमारी किताब उन्होंने अपने दड़बे में। हमसे बात होने के बाद घंटे भर में नोट्स पूरे करके, बिल्कुल हमें वापस देने को तैयार थे। इसीलिए भोजन-नाश्ता सब किताब के अंकन-टंकन के साथ ही नोश फरमा डाला। जब लौटाने आये, उपर गिरी शाम की ताजा-ताजा चाय से किताब भीगी थी। बोल गये थे, वो जल्दी माँगी थी न, इसीलिए! मन तो किया था कि एक बार को हम भी बोल दें कि इतनी जल्दी न थी, आराम से सुखाकर, रात का डिनर पूरा करके भेजते।
खैर, पिछले दस बरसों की गहन मेहनत थी। लोगों को तो अब याद भी न रहा था। पर हमारे जेहन में हर अहसास आज भी तरोताजा था। मुहल्ले का हर घर उनकी दयनीय दिखी नजरों के साये में आया था। कहीं से किताब, कहीं से लालटेन का तेल, कहीं से जीवन-बीमा का ग्राहक, कहीं से नहाने का बाल्टी भर पानी और कहीं से कुछ नहीं, तो चंदा इकट्ठा करवाने का ही टेन-टेन परसेंट कमाकर ये सब जमाया था। बड़ी अच्छी तरह याद है हर एक वाकया। एक बार तो पढ़ाई की फीस के लिए इलेक्शन के बैनर भी रद्दी भाव बेंचने की जुगत लगा डाली थी। वो तो समय रहते नेता जी के सारे चमचे उसी दिन एक अन्य गुण्डा-गर्दी के आरोप में जेल हो गये, वरना आज हम शायद कुछ और ही सत्य देख रहे होते!
कथा-कहानी चाहे जो भी रही हो, प्रत्येक अनुपलब्धता के बावजूद, संघर्षरत रहे गंगाधर जी आज अंततः अपने प्रयासों पर सफल हुए थे। सफलता का ही प्रमाण था कि गाँव से आया हमारा भतीजा, मुहल्ले में घुसते ही सीधे उनके घर जा पहुँचा। जब तक आतिथ्य-स्वागत के लिए हम अपने घर से सामने वाले मकान की दूरी तय कर
ते, होते-होते तथ्य तसल्ली से सत्यापित हो गया।
घटना कुछ ऐसी हुई, ये हमारा बड़ा भतीजा था। ग्राम-जीवन की कठोर विकटताओं ने उसे कुछ ज्यादा ही कठोर बना दिया था। मुहल्ले में कदम रखने के साथ ही उसकी कठोरता का सामना एक स्थानीय साँड़ से हो गया। अपने-अपने मद में चूर दोनों बाहुबलियों ने अपनी-अपनी क्षमताओं को परखकर ही दम लिया। साँड़ ने एक टक्कर के बाद दुबकने में भलाई समझी। और हमारे भतीजे श्री ने हाथ तुड़वाकर अहिंसा की राह को उचित समझा।
मुहल्ले में अंदर आते ही दरवाजे पर नयी चढ़ी ‘डाॅक्टर‘ नाम-पट्टिका पर नजर पड़ना बिल्कुल स्वाभाविक था। आव देखा न ताव, वो सीधे अंदर जा पहुँचा। ‘डाॅक्टर-साहब' नामक पुकार सुनते ही गंगाधर जी निश्छल भाव से घर के बाहर आ खड़े हुए। बिल्कुल पारंपरिक तौर पर भतीजे श्री ने हताहत हाथ को डाॅक्टर साहब के सामने कर दिया। और गंगाधर जी ने बिल्कुल प्रेम भाव से उत्तर दिया-
‘‘इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ?‘‘
वाक्य पूरा हुआ भर, और बस फिर क्या था ? दूसरा हाथ तो अभी भी सलामत था। गाँव की गुहार अपने तरीके से गंगाधर जी के गालों पर अपनी घनघोर पहचान पर उतर कर गयी। ‘चटाक‘ की आवाज पूरी संगीनता से मेरे कर्ण-पटहों पर पहुँची थी। जब तक अंदर पहुँचता, दो-एक प्रश्नोत्तरों की बौछार भी मौके पर पड़ चुकी थी। मुझे देखते ही भतीजे श्री के अधरों पर बिल्कुल स्वीकार्य प्रश्न था-
‘‘चाचा जी! ये क्या नौटंकी चल रही है आपके शहर में? बोल रहे हैं ये दवाएं नहीं पढ़े, पढ़ाई के डाॅक्टर हैं। अब ये भला क्या बला है ?‘‘
मूरख को क्या समझाते ? पी.एच.डी. की तात्विकता का हम उसे क्या ज्ञान कराते? स्वयं जिस कमी से जीवन भर तरसते रहे, बस उसी को शब्दों में रख दिया-
‘‘बेटा! जिस तरह तू सबसे लड़-लड़कर लड़ाई का डाॅक्टर बन गया है, वैसे ये पढ़ाई के डाॅक्टर बन गये हैं। बस मैं नहीं बन पाया। इतना कुछ करके देख लिया, पर अपना खुद का डाॅक्टर नहीं बन पाया। अपने घर की परेशानी का डाॅक्टर नहीं बन पाया।‘‘
अपने गालों पर चढी लालिमा पर भी गंगाधर जी अब तक निर्लज्ज खड़े थे। पर हमारे बोलते-बोलते उनकी आँखों में दो बूँदें छलक आयीं। पल भर में ही फिर एक नया अहसास हुआ कि और कुछ न सही, पर अपना दर्द झेलने और उसे कहने का डाॅक्टर शायद मैं बन चुका था !