दास्तान-ए-इच्छाशक्ति
दास्तान-ए-इच्छाशक्ति
कहते हैं- जीवन में कुछ कर गुज़रने का ज़ज्बा और ज़ुनून हो तो रास्ते ख़ुद-ब-ख़ुद बन जाते हैं। बस ज़रूरत है तो उन रास्तों पर होश, ज़ुनून और ज़ज्बे के साथ चलने की। ये कहानी एक 14 साल के बच्चे के जीवन की सत्य घटना है, जिससे साबित होता है कि इंसान कुछ करने की ठान ले तो वो उसे पाने के लिए पूरी शिद्दत से जुट जाता है। ममता की मूर्ति माँ को छोड़ 5 मई, 2000 की लालिमायुक्त यानी दिन के दूसरे प्रहर में वो अपने पिता के साथ ऐसे शहर में अपने कदम रखे, जहाँ से वो बिल्कुल अनजान था, जहाँ की भूमि इतनी पावन, पवित्र, पुण्यप्रदात्मक एवं प्रेरणात्मक रही है कि न जाने कितनी शख़्सियतों ने वहाँ रहकर विश्वस्तर पर अपने नाम का लोहा मनवाया, जिसका नाम है- संगमनगरी प्रयाग। उस मासूम का शहर के वातावरण और समाज के अनुरूप ढलना एक चुनौती जैसे था। जिला पंचायत मिर्ज़ापुर में सरकारी वरिष्ठ लिपिक उसके पिता, जो ज़िन्दगी की हक़ीकत से अच्छी तरह से रूबरु हो चुके थे, उन्होंने बेर का चूर्ण बेचकर अपनी पढ़ाई पूरी कर नौकरी पायी। बच्चे के भविष्य को लेकर दुनिया के हर माँ-बाप चिन्तित रहते हैं, उसी तरह उस बच्चे के पिता ने भी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में दिलाने के बाद उसे शहर ले आए और पहले से रह रहे अपने बड़े भाई के बेटे संजय के पास इस आशा और विश्वास के साथ छोड़ गए कि उसके मार्गदर्शन से उनका लड़का इस अनजान शहर से वाकिफ़ होगा और एक सुनहरे भविष्य का निर्माण करेगा। व़क्त के साथ ज़िन्दगी की पटरी पर वो मासूम किसी यात्री की भांति चलने लगा। उसने के. पी. जायसवाल इण्टर कॉलेज से हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की। बच्चे का मन बहुत ही कोमल और चंचल होता है। वो भी इससे अछूता नहीं था। जब कभी उसके भाई उसे अपने जीजाजी के कमरे में लिवा जाते थे, तो जीजाजी के भाई उस बच्चे के हमउम्र होने से खूब खेलते-कूदते थे, वो हँसी-खुशी में मशगूल हो जाता था पर बच्चा था अपनी माँ को याद करके अकेले में रोता था, जैसे कोई हिरन अपनी माँ से बिछड़ जाने पर रुदन करता है।
सुबह होती है, शाम होती है, उम्र यूँ ही तमाम होती है की प्रक्रिया पर उसका दिल ऊबा जा रहा था। उसके नाज़ुक से दिल में कई अरमान पनप रहे थे। क्रिकेट उसको बहुत पसंद था। वह क्रिकेट अकादमी में प्रवेश लेना चाहता था पर उसके पास न तो किट थी और न ही बैट। उसने जीजाजी के भाई से ही बैट मांग के ऑडिशन दिया परन्तु अफ़सोस उसे मायूसी हाथ लगी क्योंकि उसके पास अपनी किट न होने से वो प्रैक्टिस नहीं कर पाता था। पढ़ाई के उद्देश्य से शहर आने के कारण कमरे में तो टी.वी. नहीं थी पर एक एफ. एम. रेडियो जरूर था, जिसमें वो गाने सुना करता था। टी.वी. जब वो जीजाजी के कमरे भाई के साथ जाए तभी देख पाता था। टी. वी देखने की लालसा से वो धीमे-धीमे खाना खाता था, जिससे कमरे के लिए देरी हो जाए तो जीजाजी की माँ कह देती- जाने दो संजय, तुम जाओ, ये कल आ जाएगा। बच्चा मन ही मन खूब खुश हो जाता। एक दिन वो रेडियो पर गाने सुन रहा था तो उसके बालमन में ख़्याल आया कि काश! वो भी इतना सुरीला गा पाए। उस मासूम के दिल में उपजी उस नई कोपल की तरह ख़्वाहिश ने उसके अंदर संगीत की शिक्षा लेने की क़शिश पैदा कर दी। अब ये ख़्याल उसकी इच्छा बन गयी। वह संगीत सीखने के जगह-जगह संस्थान खोजने लगा। बहुत खोजने के बाद वो सुराधना संगीत विद्यालय जानसेनगंज में तुहिना घोष जी के पास पहुंचा, जहाँ से उसको अपने सपने को एक नई उड़ान देनी थी। कमरे में भाई द्वारा अनुशासन और पढ़ाई के माहौल के बीच उसने एक नई दिशा में ख़ुद से कदम बढ़ाना शुरू कर दिया। भाई की पाबंदियों और पढ़ाई के साथ उसने अपने आप को इस तरह समायोजित कर लिया कि भाई से छुपाके व़क्त निकाल कर एक घण्टे सीखता रहा।
उसने स्नातक में BCA और परास्नातक में MBA किया। वो संगीत में M.MUS तक किया, गायन और नृत्य में भी अपना नाम कमाया। धीरे-धीरे परिवार की उम्मीदों और सामाजिक नियमों को देखते हुए उसे नौकरी लेने का विचार आने लगा। वह युवा फार्म भरने लगा और उसी के अनुरूप तैयारी करता रहा परन्तु वो कहते हैं कि व़क्त के पहले और किस्मत से ज्यादा न किसी को मिला था, न मिला है और न मिलेगा। सफलता हाथ नहीं लग रही थी। जीवन दिन व रात की तरह है, जैसे सुबह होती है और रात आ जाती है ठीक उसी प्रकार जीवन में सफलता और विफलता के नियम चक्र है। शायद यह उस युवा का विफलता का व़क्त था। बुरे व़क्त में इंसान का साथ बहुत कम ही लोग देते हैं। इस दौरान एक ऐसा इंसान मिला, जिससे मिल कर उसे लगा वाक़ई इस मतलबी दुनिया में कुछ अच्छे इंसान भी हैं। खूबसूरत दिल और शख़्सियत के मालिक कानपुर निवासी एसबीआई बैंक मैनेजर सनयप्रताप सिंह मिले। उनको और इस युवा को एक दोस्त एक भाई मिला। लगातार विफलता से समाज के कई लोग यहाँ तक कि उसके अपनी मौसी का लड़का और खुद उसके पिता कहने लगे- अरे! कुछ नहीं कर पाएगा, इतने साल से रह रहा है, पढ़ता-लिखता नहीं है। नचनिया बनेगा, गाँव चले आओ, भैंस चराओ, रूपये बर्बाद न करो, खेती करो। ये बात उस युवा के दिलोदिमाग में इस कदर लगी कि उसने फिज़ा बदलने का प्रण कर लिया।
इन आलोचना करने वालों को ये नहीं पता था कि प्रत्येक इंसान जीनियस है लेकिन यदि आप किसी मछली को उसकी पेड़ पर चढ़ने की योग्यता से आंकलन करेंगे तो वो अपनी ज़िन्दगी यह सोचकर जिएगी कि वो मूर्ख है। उस युवा को इस समय पारिवारिक सम्बल की जरूरत थी, उसकी माँ, भाई-बहन और दोस्त रूपी भाई ने उसको हारने नहीं दिया और ज़ुनून भर दिया कि वो कुछ भी कर सकता है। कहते हैं- इंसान को भाग्य के सहारे बैठने की बजाए कर्म पर विश्वास रखना चाहिए। कर्म से ही उसकी पहचान होती है। जिस व्यक्ति के अंदर इच्छाशक्ति, जिज्ञासा और कर्मनिष्ठा है, वह अपने जीवन की हर मंजिल आसानी से पा लेता है। मुश्किलों से कुछ इंसान टूटकर बिखरते हैं तो कुछ और मज़बूती से उठकर खड़े हो जाते हैं। यह तो इंसान के सोचने के तरीके और उसकी जीवटता पर निर्भर करता है कि वह ज़िन्दगी को किस नज़रिए से देख रहा है। सकारात्मक सोच और ज़िन्दगी की चाह रखने वाले लोग तो मौत से भी दो-दो हाथ कर लेते हैं, फिर मुश्किलों की क्या बिसात? इसी जुनून के परिणामस्वरूप समय ने करवट बदली और उसने उत्तर प्रदेश कम्प्यूटर ऑपरेटर की नौकरी पा ली। उस दिन वह बहुत खुश था। ये खुशी इस बात की थी कि उसने अपनी इच्छाशक्ति से उन सभी आलोचकों को वो करारा ज़वाब दिया, जिससे उनके मुंह में ताले पड़ गए। वही लोग उसकी काबिलियत से गद्गद् हो गए। वह ट्रेनिंग के लिए मुरादाबाद गया परन्तु नियति का खेल बड़ा ही विचित्र होता है। उसके साथ ज़िन्दगी के लगभग 12-13 साल बिताने वाले उसके अपने बड़े पापा के बेटे को कर्क रोग ने ऐसा जकड़ा कि वो मौत की नींद में हमेशा के लिए सो गए। इस ह्रदयविदारक वेदना ने उस युवा के अन्तःकरण को कचोटकर रख दिया पर ज़िन्दगी तो चलने का नाम है, ये भला कब रूकती है। मौत तो संसार का वो कड़वा सत्य है, जिसे न चाहते हुए भी स्वीकार करना पड़ता है। वापस शहर आने के बाद उसका मन इस नौकरी में नहीं लग रहा था। जब वो थानों में अपने सामने अपराधियों को मार खाते देखता था तो उसका दिल पसीज जाता था। उसने सोच लिया था कि अब वो कोई दूसरी नौकरी निकालेगा और उसको मेहनत का फल ये मिला कि उसे फिर शिक्षा निदेशालय में कनिष्ठ सहायक की नौकरी मिली, जिसे वो कर रहा है। आज भी वो बड़े पद की नौकरी के लिए लगा है, जिससे वो ज्य़ादा से ज्य़ादा समाज सेवा कर सके।
ये उसकी इच्छाशक्ति का बेजोड़ नमूना है क्योंकि इच्छाशक्ति वह हीरा है, जो सैकड़ों पाषाण-खण्डों को काट सकता है। उसकी कामयाबी का राज है- आलोचना क्योंकि बिना आलोचना के इंसान के अंदर का वो ज़ुनून नहीं जगता, वो ज़ज्बा नहीं पनपता, उसके अंदर छिपी जीत की भूख़ न जगती। इन्हीं आलोचकों के फलस्वरूप ही उसके अंदर ये ज़ुनून जागा कि मैं एक दिन खुद की काबिलियत साबित करके रहूँगा और उसने इन मुश्किलों के आगे हार न मानते हुए जीत की एक नई इब़ारत लिख दी। उसने ज़िन्दगी से सीखा कि ये पूरी क़ायनात सिर्फ़ उगते हुए सूरज को सलाम करती है।
