पहले की दुनिया
पहले की दुनिया
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बात उन दिनों की, जब मैं बच्चा हुआ करता था। शाम का वो सर्द भरा मौसम जलती आग के पास माँ, मामा और पड़ोस की मौसियों के साथ बैठना। बगल में हरे चने और भुना चना जिसे गांव में 'बिरवा' और 'होरा' कहा जाता है#बुंदेलखंड को छीलकर चबाना। कभी-कभी बाजरे की बाली का गरम-गरम दाना तो कभी माँ के हाथ की पोई मीठी रोटियां और नमक। सच पहले का जमाना कितना सुहाना था न। वो लालटेन का जलना। वो आग के बाद रजाई में घुसकर पढ़ना और पढ़ते-पढ़ते सो जाना। वो जमाना अब कहाँ? आग रूम हीटर और ब्लोअर में तब्दील हो गयी, लोगों का साथ बैठकर बतियाना चोरी, शक, एक-दूजे को कमतर समझकर स्टेटस पर ध्यान देना हो गया। उस चाय की चुस्की में और अब की सर्द की टी की सिप में न जाने कितने फासले आ गये। वो ठण्ड की रंगत, वो अपनों का साथ, वो यारों संग मस्ती न जाने कहाँ गुम-सी होती चली गयी क्योंकि जमाना प्रैक्टिकल के साथ ही साथ टेक्निकल भी तो होता गया। तभी तो दो लाइन याद आती हैं मुझे -
जो बीत गए दिन वो ज़माने नहीं आते।
आते हैं नये दिन मगर पुराने नहीं आते।।