दारूण दुःख

दारूण दुःख

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यार, कुछ समझ नहीं आ रहा है, कि जीवन की गाड़ी को कैसे चलाए।

क्यों आज ऐसा क्या हो गया, जो तू इस तरह से बात कर रहा है ?,

 तू तो हमेशा सबको हिम्मत देता रहा है।आजकल परिवार वालों से भी नाता तोड़ लिया है। 

"क्यों, क्या मैं इंसान नहीं हूँ, मेरे अंदर भावना नहीं, पत्थर भरा है ?,  

जब से मेरी पत्नी गयी, तब से सब मुझे भी मुर्दा इंसान समझने लगे हैं। मैं सबके लिए अब फुर्सती इंसान बन गया हूँ, जिसे देखो, वही काम बताता रहता। लेकिन मेरे लिए किसी के पास घड़ी भर का समय नहीं। मुझे भी प्यार और सहानुभूति की उतनी ही जरूरत है, जितनी किसी महिला को होती है।"

अकेले जीवन जीने में पुरूष को भी उतना ही दर्द होता है, जितना किसी महिला को। सभ्य पुरुष अपनी मर्यादा में रहकर जीना जानता है।"

"पहेली मत बुझा, असली बात क्या है, उसे बता।"

'देख, काम मुझसे होता नहीं है, और मुश्किल यह है, कि मैं किसी बाई से घर का काम भी नहीं करा सकता।

क्यों ?,  

कल मुझे बाई के रंग-ढंग ठीक नहीं लगे। मैं लिखने में मशगूल था, वो बार-बार पोछा मेरे पाँव से छुआने की कोशिश कर रही थी।

तो तूने उसे रखा ही क्यों ?,  

पत्नी के रहने में उसने बेटे की पढ़ाई के लिए कुछ रूपए उधार लिए थे। वो दे नहीं पा रही थी, तो बोली कि मैं इस तरह काम करके चुका दूँगी।

फिर ?,  

उस समय तो मैं बाहर निकल कर खड़ा हो गया, लेकिन अब मुझे उसको काम से हटाना ही पड़ेगा। नहीं तो चढ़ढा जी के तरह मेरी बाई, मुझे भी बदनाम कर देगी।

 "तू बिल्कुल सही सोच रहा है।  कुछ बाइयों का भी ऐसी होती हैं, जो अपने फायदे के लिए ऐसा ही घर ढूँढती हैं, और फिर जो फिसला, वो हमेशा के लिए फँसा।" 


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