माँ का स्नेह

माँ का स्नेह

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लगातार जिंदगी की झंझावातों से जुझती हुई माँ अब थकने लगी थी।उसे घर-गृहस्थी और घरवालों में अब रूचि नही रह गयी थी। लेकिन वह एकदम तमाम तरह की जबाबदारियों से मुँह मोड़कर वानप्रस्थ भी नही ले सकती थी।

       

इसी उधेड़बुन में वह लगातार लगी रही कि कोई सुपुत्र आकर उसके कंधे का भार उठा ले। कोई भी जिम्मेदारियों के उस भारी-भरकम ट्रंक को सम्भालने के लिए तैयार नही था।

      

माँ को भय था कि, इस नाजुक घड़ी में मेरे बच्चे कही आपस के खींचतान में ही न उलझ जाएं। लाख न चाहते हुए भी, एक बार फिर से उसकी अनुभवी हाथों ने चाभी का वह भारी गुच्छा पूरी ताकत के साथ झटके से उठा लिया और अपनी संतानों के साथ घर की तरफ चल दी। 

       

इधर पडोसी अपनी-अपनी खिड़कियों में बहुत देर से इस ताक में आँख सटाए बैठे थे कि-अब तो माँ वृद्धाश्रम ही जाएगी और उसमें हम मिर्च-मसाला लगाकर चटकारे लेगें, लेकिन उम्मीदों पर पानी फिरते देख, वह कभी अपनी खिड़कियों पर लगे रेशमी पर्दों को तो, कभी वृद्धाश्रम की तरफ जाते हुए रास्ते को देख कर हाथ मलते रह गये।


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