चिट्ठियाँ ( एक संस्मरण)📝💌📮
चिट्ठियाँ ( एक संस्मरण)📝💌📮


इसे इंसानी फितरत ही कह लिजिए कि उसे आगे बढ़ने या कुछ नया सीखने के लिए किक की जरूरत होती है ।दूसरे शब्दों में जिनसे हमें प्रेरणा, उत्तेजना , प्रोत्साहन मिलती है वो हमारे लिए स्टीमुली का काम कर जाता है ।कभी डाकिया हमारे समाज का एक अभिन्न अंग हुआ करते थे।
किसी का पता पूछना है तो बेशक डाकिया जी से पूछ लिजिए फौरन सटीक पता बता देंगे। अब सोचे तो लगता है कि वे खुद में एक जीपीएस सिस्टम हुआ करते थे।
चिठ्ठी पत्री , शादी के कार्ड, मनीऑर्डर, पत्रिका, टेलीग्राम इंश्योरेंस के रसीद और ना जाने कितने ही तरह के संप्रेषणों को ठिकाने तक पहुंचाने का काम डाकिया जी के कंधों पर हुआ करता था।
चिठ्ठी के अंदर गए बिना समाचार का मिज़ाज भी समझ जाते थे।
लिफाफे में हल्दी लगा हो, लिफाफों से अच्छी सुगंध आ रही है तो पक्का कुछ अच्छी खबर है।
पोस्ट कार्ड अगर काले स्याह से लिखी गई है तो हो न हो कोई बुरी खबर किसी के यहां आज दस्तक देने वाली है।
मनीऑर्डर यानी रुपए पैसे का कोई इंतजाम आया है।और न जाने ऐसे कितने ही तरह के पारिवारिक बातों से रिश्ता नाता इनके कार्यकाल का हिस्सा रही।वो भी क्या दौर था जब हर उम्र वाले को किसी न किसी वजह से डाकिए का इंतजार संजीदगी से रहता।टेलिफोन कम ही लोगों के घरों में हुआ करते थे।
चिट्ठियाँ ही अधिकतम लोगों के संप्रेषण का माध्यम हुआ करता था।मुझे अच्छी तरह से याद है। हमारे यहां भी कहीं न कहीं से पत्र व्यवहार आते ही रहते थे।हम भाई-बहन छोटे होने के बावजूद भी चिट्ठियों का भरपूर आनंद उठाया करते थे।
चाहे वो हमारे मतलब की हो न हो बस सबसे पहले पढ़ने का होड़ हम भाई-बहनों में होता।यहां डाकिये की सायकिल की घंटी की आवाज़ आई नहीं की सब दौड़ पड़ते लपकने के लिए।
हम सब पहले पढ़ते आखिर में माँ को थमा देते।माँ मांगती रह जाए कि लेकिन मजाल है कि वो हम सबसे पहले पढ लें।
न... हो ही नहीं सकता।माँ भी बिचारी सोचती जाने दो बच्चें तो हैं।गुस्सा होके भी कोई मतलब नहीं,.... जानती थी।क्योंकि हम बच्चे बड़े प्यार से जवाब दे जाते।तुम्हारे भाई का चिट्ठी है तो क्या हुआ, हमारे मामा वो पहले हैं और ऐसे ही सारे रिश्तों की शुरुआत हमसे ही होती।बस और क्या माँ चुपचाप अपनी बारी का इंतजार करती।
बा
बा (पिताजी) भी कभी डांट-डपट नही करते थे।चलो बच्चें है । शांत मन से सिर्फ हमारे क्रियाकलापों को देखते रहते थे।वो भी हमारा साथ देते।लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई।हमारी जीत अधूरी दर्ज होने में कामयाब हुई थी।कैसे??वो ऐसे कि पत्र व्यवहार तीन भाषाओं में आया करती थी।
हिन्दी
अंग्रेजी
तेलुगु (मातृभाषा)
हमारी पूरी जीत की अधूरी कामयाबी का सेहरा तीसरी भाषा में हमारी अज्ञानता को जाता था।
लेकिन यहां माँ की पूरी जीत दर्ज होती थी।माँ त्रीभाषी और हम भाई-बहन द्बी भाषीजिस दिन चिट्ठी पत्री तेलुगु में आती थी, हम निहायती शरीफ बच्चे बन कर चिट्ठी लेकर सीधे माँ के पास भागते।वो दिन तो माँ का होता, वो हमें व्यंग्य से अपनी भृगुटी को उपर तान के बोलती , लो लो पढ़ लो ना।चुप रहने में ही हमारी भलाई है।माता शरणं गच्छामि।नहीं तो समाचार से वंचित रह जाऐंगे ।
वह दिन तो पलड़ा पूरी तरह से माँ के तरफ झुका होता और हम भाई-बहन माँ की तरफ।
माँ बोलती... कुछ तो तुमलोग शर्म कर लो।अपनी ही मातृभाषा को पढ़ पाने में असमर्थ मेरे होनहार बच्चे।माँ का कटाक्ष समझ तो आता था।ये सिलसिला यूं ही चलता रहा।
जब भी तेलुगु में चिट्ठी पत्री आती तो माँ का सवा सेर वाला व्यवहार और कटाक्ष ....फिर माता शरणं गच्छामि।आखिर में माँ ने जीत दर्ज की।मैं जैसे तैसे अपनी मातृभाषा लिखना सीखने को तैयार हो गई।
वैसे भी माँ पहली गुरु होती है।आज और भी सिद्ध हो गया था।चॉक और स्लेट का इंतजाम झटपट किया गया।आलम ऐ हुआ कि जल्दी सीखने की जुनून में मैं ने फर्श को ही स्लेट बना कर खूब अभ्यास की।इसी दौरान स्कूल कालेज स्टार्ट हुई।बस मेरी मातृभाषा कक्षा पे विराम लगा।
मात्र सप्ताह भर के क्लास में माँ ने कम से कम अक्षर पढ़ और लिख सकूं में सक्षम बना दिया मुझे।
अगर आज मैं तीन भाषाएं पढ़ और लिख पाती हूं तो इसका सारा श्रेय माँ के जज़्बे और बाबा के प्रोत्साहन को जाता है।दोनों को नमन ।शुक्रिया डाकिया बाबू और चिट्ठियों का जो मेरे लिए स्टीमुली(प्रेरणा ,उद्दीपन ) का काम किए।
और मेरी माँ के कटाक्ष का जिससे मुझे और किक मिलता कुछ अच्छा सीखने का।आप सभी के जीवन में भी ऐसे लोग या घटनाऐं हुए होंगे जिससे आपको किक मिला होगा?