vishwanath Aparna

Others

3.3  

vishwanath Aparna

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#असमंजस#

#असमंजस#

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स्वछंदा एक मध्यम रूप रंग की साधारण सी पढ़ी लिखी समझदार लड़की थी। उसकी शादी एक भरे-पूरे परिवार में हुई थी। पति साधारण सी नौकरी में कार्यरत थे। कोई पांच साल हुए होंगे शादी के तीन साल की एक बिटीया उसके मन के आंगन की किलकारी थी। ससुराल वालों के तरफ से ऐसी कोई खुशी तो आज तक उसे ना के बराबर ही मिली थी। सम्मान भी बहुत नहीं मिलता था। स्वछंदा हमेशा महसूस करती दिल को ठेस भी पहुँचता। वजह भी उसे समझ आती थी।

पति के स्टेटस का असर उसकी जिंदगी से जुड़ी है यह उसे अच्छी तरह समझ आने लगा था। मगर क्या करें। चुपचाप अपनी किस्मत मानकर अपमान और दुःख के घुंट पी जाती। एक बार उसकी ननद ने जो राँची में रहती थी .... स्वछंदा से  कहा भाभी आप और भैय्या कभी हमारे यहां भी आइए ना। गर्मी की छुट्टियां पड़ी स्वछंदा अपने पति और बिटिया के साथ राँची गई।

नंदोई अच्छे कंपनी में बड़े ओहदे में कार्यरत थे। उनके रहन सहन में ठाठ थे। स्वछंदा को उसकी ननद कभी आस-पड़ोस में भी मिलाने नहीं ले जाती क्योंकि वह ना तो रूप-रंग से खास थी ना ही ओहदे में। सभी विषयों में साधारण सी थी। बात समझ में आती थी उसे मगर मन को समझा लेती और हर बात को नादान सी बनकर नज़रअंदाज़ कर देती। लेकिन एक दिन की घटना ने तो उसके अंतर्मन को झंकृत कर दिया।

स्वछंदा अपने पति और बिटिया के साथ हॉल में बैठी हुई थी, तभी फोन की घंटी बजी। ननद ने बात की और झटपट स्वछंदा पास आई और बोली भाभी आप और भैय्या तुरंत रूम के अंदर चले जाइए ! उसके निगाहों में शायद प्रश्न छलक पड़े थे! ननद ने कहा कुछ नहीं भाभी क्या है, इनके बॉस आ रहें हैं।

स्वछंदा अपने पति की ओर देखी। दोनों चुपचाप अपनी बेटी को लेकर कमरे के अंदर बैठ गए।

छोटी सी बिटिया ने पूछा मां हम अंदर से बाहर कब जाएंगे????

मुझे खेलना है।

स्वछंदा ने जैसे तैसे बेटी को बहला फुसलाकर सुला दिया।

कोई एक घंटे के बाद ननद आई ।

आ जाइए आप लोग।

वो लोग चले गए।

स्वछंदा थोड़ी देर बाद अपने अदृश्य आँसू को मन से पोंछते हुए अप्राकृतिक मुस्कान लिए बाहर आ जाती है। तभी बेटी गोद में आकर बैठ गई। नर्म मुलायम हाथों से मां के गालों पर हाथ फेरते हुए तोतली जुबान से पूछती है।

मां बुआ ने हमें कमरे के अंदर क्यों रहने को कहा???

क्या कहती नन्ही सी जान को।

मन भर आई स्वछंदा की।

 ये कैसी दीवार है?? 

क्या रुपया, ओहदा इंसान को इतना ऊपर उठा देती है कि रिश्तों को गिरा दें और लोगों से छुपाना पड़े। स्वछंदा खुद में शर्मसार थी। भगवान ऐसा अन्याय मेरे साथ क्यों ?? आज बीस बरस हो गए लेकिन अपमानित मन संभल नहीं पाया। घाव अब भी हरे मानो कल की ही बात हो। अपने ही घर में इतना भेदभाव??

कारण उसका साधारण रूप-रंग, पति की साधारण सी नौकरी या शायद दोनों ही वजह रही ससुराल में अपमान की । 

स्वछंदा अपने आप को रिश्तों की तसल्ली देते हुए मन को समझा लेती। 

राँची वाले ननद के बेटी की शादी का न्योता आया। स्वछंदा ने ये सोच कर कि फिर वें मिलने मिलाने को लेकर असमंजस में ना पड़ जाए!! 

तबियत खराब होने का बहाना बना लिया और नहीं गई।

 मन जब अपमानित होता है तो चोट इस कदर गहरा होता है कि वो ना कभी भरता है ना कभी मन से जाता है।

बस एक टीस रह जाती है।



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