#जिन्दगी की पाठशाला#

#जिन्दगी की पाठशाला#

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आज साल भर बाद मैं अपनी एक पुरानी सहेली से मिलने उसके घर पर गई थी।लंबे अरसे के बाद

मिलने की वजह से हमारी बातों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था।

श्रुति ने घड़ी की तरफ इशारा करते हुए चलने का इशारा किया!मन तो नही हो रहा था उठने का मगर समय की बंदिश थी।

सो मैंने अपनी सहेली से विदा मांगी।

उसने भी फिर से जल्दी मिलने का वादा ले कर समय की बंदिश को स्वीकारते हुए विदाई दी ।

हांलांकि शाम के छः बजे थे मगर ठंड का मौसम होने के कारण बाहर बिल्कुल अंधेरा हो चुका था।

मैं और श्रुति घर वापस लौट रहे थे।

क्रिसमस का माहौल होने की वजह से सड़क में बहोत चहल-पहल थी।

 हर तरफ क्रिसमस की रौशनी और जगमगाहट से शहर चकाचौंध था।

सांता क्लॉज के वेश में बच्चे और कुछ बड़े लोग भी गिफ्ट की पोटली लिए घुम रहे थे।

लाल और सफेद कपड़ों में यंगस्टर्स फेस्टिवल का आनन्द ले रहे थे।

सांता क्लॉज के साथ सेल्फी लेने में हर कोई व्यस्त था।

तभी श्रुति ने याद दिलाया मम्मा बाजार से सब्जियां लेनी है।

स्ट्रीट लाइटस और दुकानों की चकाचौंध रौशनी अंधेरे को मात दे रही थी। इसलिए रात होने के बावजूद हम सहज थे।

मैंने अपनी गाड़ी को बाजार के साइड में पार्क की और सब्जियां खरीदने थोड़ी सी ही अंदर गई क्योंकि पहले ही हम लेट हो रहे थे।

जल्दी जल्दी मैंने दो-चार सब्जियां ली और वापस अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ने लगी, तभी मेरी नज़र अंधेरे में रखे लौकियों पर पड़ी।

पास गई तो देखी दो छोटे बच्चे (आठ- नौं) साल के होंगे खड़े थे।ठंड में स्ट्रीट लाइट के नीचे सब्ज़ी बेच रहे थे।मेरे पैर वहीं ठिठक गऐ।


 इतनी छोटी उम्र में ???

मन ना जाने काफी विचलित हो उठा। 

भगवान तुम हो ??

कई चाहे अनचाहे प्रश्नो के सैलाब मन में उमड़ रहे थे!!

मैं आगे बढ़ी ...... कितने का है ??

"दस का है " उसने धीरे से जवाब दिया।

मैंने एक लौकी उठाई।

दृश्य काफी मार्मिक था।

......उन छोटे नन्हें हाथों ने किताब, कॉपी, खिलौने की जगह लोहे के भारी भरकम तराजू और बटखरे थे।

इस उम्र केदु सरे बच्चे अभी घर में रजाई के अंदर घुसे कुछ गर्म खाते-पीते पढ़ाई लिखाई या टी.वी. देखते हुए मनोरंजन कर रहे होंगे।

इन नन्हों को किस बात की सज़ा फिर !!

हे भगवान ! इतनी खाई क्यों ???

क्या न्याय है तेरा ??

एक तरफ कोई क्रिसमस की धूम में मग्न है कोई तो दुसरी तरफ ऐ दुनिया जहां ऐ मासूम एक बित्ता पेट की भरण पोषण के लिए अपनी मासूमियत को दरकिनार करते हुए नर्म खिलौने को महसूस करने की बजाय हाथ में लोहे के तराजू थामें ज़िन्दगी की जद्दोजहद में मग्न हैं।

सांता का भी ध्यान इन नन्हों पर नहीं गया।

ये विडंबना ही तो है।पैसे वालों की दुनिया के चोंचलों के बीच दिखावटी मुखौटा पहने सांता!इन सब से अनभिज्ञ दुसरी दुनिया में कुछ ऐसे भी नन्ही-सी जान है ।

मैंने अपनी पर्स से पचास रुपए निकाल के उन्हें दिया ।

थोड़ी सी ही देर में गिन कर चालिस रूपए वापस किए!

उन दोनों ने,कोई गलती नहीं।दुःख और आश्चर्य दोनों से असहज स्थिति हो गई थी मेरी।

मैंने श्रुति की तरफ देखा ।

उसे भी सब एहसास हो रहा था।

एक बार तो मन किया पैसे वापस न लूं ।

लेकिन ये समस्या का समाधान नहीं है !

ये जिन्दगी है।एक दिन में खत्म नहीं हो जाती। जिन्दगी को तो पूरी जिंदगी जीनी पड़ती है ना !अंदर से ढ़ेर सारी दुआएं निकली ।

लोका: समस्ता: सुखिनो भवन्तु।

एक दिन बहोत बड़े व्यापारी बनोगे ।

अनायास ही मेरे दोनों हाथ उनके सिर की तरफ बढ़े ।

उनके चेहरों पर मंद मुस्कान थी।

मगर मेरे अंदर लावा धधक रही थी ।कौन सी पाठशाला में गणित सीखा इन्होंने ??

ये जिन्दगी के लिए जद्दोजहद की पाठशाला थी !

जो खुद ब खुद हर गणित सीखा देती है।

#दुनिया में कितना गम है.....

मेरा ग़म कितना कम है.....

लोगों का जब गम देखा...

तो मैं अपना गम भूल गया#.....सही ही तो है।


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