रिश्तों की पोटली
रिश्तों की पोटली


कल भी हर रोज की तरह शाम को हम सभी नीचे लगी बेंच और कुर्सी मे बैठे थे अपने बच्चों के इंतजार में। चूंकि कथक क्लास का समय एक घंटे का है तो ज्यादातर हम महिलाएं वहीं इंतजार कर लेते। अब कौन घर आए और जाऐ, समय और पेट्रोल दोनों बचे और साथ ही साथ दिन दुनिया की खबर से भी अप टू डेट हो जाते।
समय का सदुपयोग तो हम महिलाओं से कोई सीखे। आज भी सिलसिला जारी थी। ग्रुप मे ऐसे ही घरेलू बातों पर चर्चा चल रही थी। सभी लोग अपनी अपनी बातें कर रहे थे।
शायद अपना मन हल्का करने की कोशिश कर रहे थे।
और ऐसे ही कुछ पल सभी इकट्ठा होते और एक दूसरे का हाल चाल पूछ लेते। एक पंथ दो काज। अब तो हमें एक दुसरे की आदत सी हो गई थी। हम सभी लोग अगर बहुप्रतिभावान है कहा जाऐ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसा हम सभी को प्रतीत होता है। सभी लोग दुर्गा का अवतार। दस हाथ दिखाई तो नहीं देते मगर काम दस हाथों का कर जाते सिर्फ दो हाथ। सुबह पांच बजे से लेकर रात दस बजे तक बिना विराम के। आज भी परंपरानुसार जिसे जिसमें महारत हासिल उसके बारे मे ज्ञान दे ले रहे थे।
इस सब के बीच मेरा ध्यान आनंदिता की तरह गया, चुपचाप गुमसुम मानो किसी गहरे सोच में हो।
मैं अपने जगह से उठी और आनंदिता के पास गई। वो हमारी पुरानी सहेली है। स्वाभाव से सहज,मितभाषी, संस्कारी,पढी़ लिखी,भारतीय गृहिणी का जीता जागता उदाहरण।
क्या बात है,आनंदिता मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछी ? क्यों आज कुछ बोलना नहीं है,क्या बात है, परेशान हो? कई ऐसे प्रश्नों की झडी मैंने लगा दी।
आनंदिता ने एक लंबी सांस लेते हुए कहा कुछ खास बात नहीं अपर्णा। कभी घर आना ना। बात को टालते हुये उसने घर आने का न्योता दे दिया। मैं भी फिर दुबारा कुछ नहीं पूछी। बस हांँ मे अपना सिर हिला दिया।
कल रविवार है घर पर रहोगी आनंदिता ?
हां हां, कहां जाऊँगी ! दूसरे दिन मैंने जल्दी जल्दी घर के सारे काम निपटाये और
आनंदिता के घर दोपहर को पहुंची। बहोत सालों बाद उसके घर जाना हुआ। सब कुछ तो वैसा ही है। मन ही मन मैं बोली।
लेकिन घर के थोड़ा और अंदर गई तो बेडरूम में पलंग पे कोई सोया हुआ नजर आया मुझे !
श्रीमान जी है क्या ? छुट्टी है क्या उनकी ?
मैं लगता है गलत वक्त में आ गई ! मेरी बड़बड़ जारी थी। तभी आनंदिता ने कहा अरे नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है।
ऐ तो आफिस गए हैं। ओह तो अंदर कौन है? मैने उत्सुकता पूर्वक पूछा ! खुद ही देख ले ना, आनंदिता ने कहा। अब मैं कहां रूकने वाली, झट जा पहुंची कमरे के अंदर।
देखी तो थोड़ा आश्चर्य हुआ। मैं उनके पास गई और उन्हें प्रणाम किया। जवाब मे उन्होंने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। मैं थोड़ी देर तक उनके पास बैठी रही उनकी हालचाल पूछते। तभी आनंदिता ने आवाज लगाई अपर्णा तेरी कॉफी तैयार है आजा। मैंने अम्मा से इजाजत मांगी।
अम्मा ने क्या कहा, पहचानी तुझे ? अरे हां हां मुझे कौन भुला सकता है भला !
मैं सख्सियत ही कुछ ऐसी हूं ! आनंदिता भी हंस पडी। तुम बाज नहीं आओगी। कॉफी नाश्ता खत्म हुआ। मैंने आनंदिता से पूछा क्या बात है? सासु माँ यहां कैसे?
आनंदिता ने कहा हां अब ऐ हमारे साथ ही रहेंगी। उम्र हो गई है इनकी, हमारी जिम्मेदारी है इनकी देखभाल करने की। आनंदिता के चेहरे पर जिम्मेदारी से ज्यादा प्रेम का भाव था।
किंचित मात्र भी द्वेष भाव नहीं। तुम महान हो आनंदिता ! अरे नहीं नहीं ऐ तो सभी लोग करते हैं। आज वो खाट पर आ गई हैं तो बहू होने के नाते मैं तो अपना फर्ज निभा रही हूं !
मुझे पंद्रह साल पहले की वो आनंदिता याद आ गई जो हमारे पडोस मे नई नई रहने आई थी। सिर्फ पति पत्नी। कुछ दिनों बाद मेरी और आनंदिता की अच्छी दोस्ती हो गई।
दिन, सप्ताह, महीने बीते, पता चल गया कि आनंदिता प्रेग्नेंट थी। पूछ ही लिया मैंने, कौन सा मंथ चल रहा सातवां ....आनंदिता ने सकुचाते हुए जवाब दिया था।
क्यों नहीं बताया आज तक ? जाने दो ना, अब पता चल गया ना ?
मुझे आश्चर्य और दुख दोनो हुआ। आश्चर्य इस बात का कि आनंदिता को देखने एक दिन भी कोई नहीं आया। जबकि उसके ससुराल वाले लोग यहीं शहर से 10-15 किलोमीटर की दूरी प
र रहते थे। आखिर रहा नहीं गया मुझसे। मैंने पूछ ही ली ! क्यों ससुराल वाले कैसे लोग है तेरे ? एक बार भी तुझे देखने नहीं आए ?
आनंदिता के आंखों से पानी टपक पड़ी ना जाने कैसे इतने दिनों तक कैसे संभाल कर रखी थी।
मुझे पता था आनंदिता की माली हालत बिल्कुल ठीक नहीं थी। उसके पति इक सीधे साधे व्यक्ति थे। कंपनी में कुछ परेशानियों की वजह से कुछ महिनों से तनख्वाह समय से नहीं मिल रही थी। उस पर किराये का मकान। जो पैसा आता किराया देने मे ही निकल जाती होगी।
मगर आजतक आनंदिता ने इसका आभास तक किसी को न होने दिया था। बस अंदर ही अंदर घुटती रही। हम कुछ नहीं कर सके क्योंकि उसकी स्वभिमानी स्वभाव की हम कद्र करते थे। लेकिन आज भी इस बात से मैं तिलमिला जाती हूं। जब ऐ सोचती हूं कि कैसी निष्ठुर होगी वो सास?
क्या उसे अपने बहू के गोद भरने की जरा भी खुशी नहीं हुई। लोग तो परायों को भी देख आते हैं ऐसी अवस्था में तो।
फिर ऐ तो अपनी इकलौती सगी बहू थी। लेकिन नहीं आई ! आनंदिता से कारण पूछा मैंने।
आनंदिता ने कहा घरेलू कारणों से हमें अलग होना पडा। इनकी कंपनी ठीक नहीं चलने की वजह से आर्थिक रूप से हम इन लोगों पर बोझ बन रहे थे। इसलिए हमसे ऐसे ऐसे बर्ताव किया जाने लगा कि हमें अलग रहने का निर्णय लेने को मजबूर होना पडा। जो भी हो आनंदिता किसी की भी गल्ती हो, मगर इस समय की बात कुछ और है।
यह समय तुम्हारे अच्छे देखभाल की है वरना इसका असर आने वाले बच्चे पर पड़ सकता है। मगर आनंदिता निः शब्द चुपचाप सिमट कर रह जाती थी।
किसी से मदद लेना उसे कतई मंजूर नहीं, स्वाभिमानी जो थी। मायके जाती तो वहाँ आस पडोस के सवाल का डर।
जब समय नजदीक आया तो आनंदिता के माँ पिताजी आके उसे ले गये। कुछ दिनों बाद खुशखबरी मिली कि आनंदिता ने लक्ष्मी को जन्म दिया है।
सुनकर बहोत खुशी हुई थी। आज आनंदिता की बेटी को हुये चौदह वसंत हो गए। सभी लोग अपनी अपनी जगह उम्र के हिसाब से खुश दिख रहे थे।
अंदर आनंदिता की सास भी भले ही खाट पकड़ ली थी लेकिन खुश थी। आनंदिता ने सेवा में कोई कसर नहीं की थी। खाने पीने का भी पूरा ध्यान रखा था, उनको जो इच्छा होती आनंदिता बना देती। सब देखते हुए आखिर मैं पूछ पड़ी क्यों जब तुम्हें इनकी मदद की जरुरत थी तो इन्होंने तुम्हारी सुध तक नहीं ली।
तुम अस्पताल में भर्ती हुई। पता होते हुए भी की तुम्हारा बल्ड ग्रुप नेगेटिव है। डिलीवरी के समय कुछ भी होने की संभावना हो सकती थी, फिर भी तेरी सास ने पूछा तक नहीं था।
"लेकिन भगवान की कृपा से सब अच्छा हो गया ना"।
मैं आश्चर्य से आनंदिता की तरफ देखने लगी। वह मेरे करीब आइ, मानो वह कुछ कहना चाहती हो।
मैं उसकी आँखें पढने की कोशिश करने लगी। उसका हाथ अपने हाथों में लेकर कहा ,तुम महान हो।
तब आनंदिता बोल पडी, नहीं रे....महान क्या ! मैंने जो दिन देखे मैं नहीं चाहती और कोई देखे।
कहते कहते उसकी आंखें नम् होने लगी।
आज पंद्रह सालों बाद वह बोल पड़ी। जनती है अपर्णा उन दिनों हमारी आर्थिक स्थिति इतनी बुरी थी कि 100 ग्राम खाने के तेल को मुझे एक महीने तक चलाना पडता था।
उन दिनों मैं गर्भवती थी, खाने का कुछ मन करता था मगर पैसे नहीं हुआ करता।
बस मन को समझा कर मन मसोसकर रह जाती थी। चूंकि मैं उन हालातों से, उन दर्दों से गुजर चुकी हूं।
मैं नहीं चाहती कि मेरे जैसे किसी और की भी आत्मा विक्षुब्ध हो ! इस उम्र में अम्मा को सही देखभाल से ज्यादा लोगों की जरूरत है।
लोगों के बीच रहने से वो खुश रहेंगीं। किंचित मात्र भी न बदले की भावना न ही दिख़ावा था आनंदिता मे। बस एक ही भावना थी और थी वो समर्पण। बस धीरे से एक गीत गुनगुना रही थी। जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं। जो मकाम वो फिर नहीं आते। सारा दर्द सारी कशमकश, सारी उलझने, सारा उहापोह मानो उस गाने मे बाँध लिया हो आनंदिता ने।
शाम कब हो गई पता ही नहीं चला। कुछ लोगों का सहवास होता ही ऐसा है। भगवान तुम्हें खुश रखे।
यही दुआ आनंदिता के लिये हमेशा दिल से निकलती। शायद जीना इसी का नाम है। ऐ समर्पण की पोटली थी, ऐ एहसासों की पोटली थी।