भाषा अवरुद्ध नहीं ( परंतु अवसर)
भाषा अवरुद्ध नहीं ( परंतु अवसर)


हम उस देश के वासी है जिस देश में गंगा बहती है।हमारी संस्कृति, सनातन धर्म, हमारी परंपरा का विषेश महत्त्व है।यही विशेषताएं हमें विशाल विश्व पटल पर विशेष छवि प्रदान करती है।अनेकता में एकता हमारी पहचान है। यहां हर धर्म और जाति के लोग निवास करते हैं।जाती तो छोड़िए जी यहां इतनी प्रकार की भाषाएं बोली जाती है कि इसका अनुमान आप इस प्रकार लगा सकते हैं कि यहां कुछ किलोमीटर की दूरी पर भाषाओं का बदलाव आप स्पाष्टता से अनुभव कर सकते हैं। अपने आस पड़ोस में ही एक नज़र मार लें। आप भी बोल उठेंगे.....
अरे बाबा नाना प्रकार के भाषाएं बोलने वाले!हर राज्य की अलग भाषा।राज्य के अंदर अगर झांके तो बापरे हर जिले में अलग अलग बोली।कहीं तो इतनी विभिन्नताएं है कि एक की अच्छी बोली दुसरों के लिए अपशब्द होती है।फिर भी कोई गिला नहीं।कोशिश होती है कि हम इन्हें समझें।
इतनी विभिन्नताएं हम्म्म्म्म्..........दुनिया के लिए आश्चर्य।लेकिन इतना ही सच जितना की सूरज का उगना और डूबना।इसमें कोई दो राय नहीं।इन सबसे एक और बात भी साबित होती है कि हम भारतीय कितने समायोज्य है।अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर हम यह कहें कि हम भारतीय लोगों को तो समायोजन में पारंगत हासिल है।हममें खासियत है हम भावनाओं को तवज्जो देते हैं।अब "माँ"शब्द को ही ले लीजिए....
है तो एक अक्षर लेकिन अंबर से विशाल, समुद्र से गहरा, पर्वत से ऊंचा, शहद से मीठा, फूल से मुलायम और भी न जाने कितने विश्लेषण मां शब्द सुनते ही हृदय रुपी आंगन में हिलोरें खाने लगते हैं।भले ही अलग-अलग स्थानों में मां शब्द को अलग अलग नामों से पुकारा जाता हो( आई, अम्मा, माई, इया,बा, बेबे आदि....)
संबोधन भले ही बदले भावनाऐं सबकी एक है।हमारी संस्कृति की तरह हमारे देश की भाषाओं की शब्दावली भी विशाल है....भले ही शब्द बदल जाते हो मगर जज़्बात, भावनाऐं तो वही रहते है।
शायद भाषाओं के आधार पर ही राज्य भी बने।आश्चर्य का विषय मेरे लिए हमेशा से रहा!लेकिन ऐसा नहीं है कि दुसरी भाषा वाले दूसरे राज्यों में आ जा नहीं सकते।बिल्कुल जा सकते हैं।यहां कोई बंधन नहीं है।आखिर भारत में इतनी विभिन्न प्रकार की भाषाएं कहां से आई होंगी??
फिर कभी इस पर विशेष रिसर्च कर सकते हैं।हां तो हम थे विभिन्नताएं और सामंजस्य पर।
एक छोटा सा संस्मरण इसी संदर्भ में बांटना चाहूंगी.....जैसे कि मैं बिहार से हूं।
शायद मेरे पूर्वज नौकरी चाकरी के लिए आए और यहीं के होकर रह गए।हमारे बिहारी न होने की वजह से कभी कोई मुश्किलों का सामनान करना पडा क्योंकि जन्म से वहीं रह रहे थे तो हर प्रकार के ( विभिन्न जिलों) बिहारी भाषाओं के लगभग हम आदि हो चुके थे। कहने से तात्पर्य यह है कि बिहार में बिहारी ही बोली जाती थी।खासकर बूढ सयान हिन्दी बहोत कम बोले।हालांकि देखा जाए तो हर राज्य में अपनी क्षेत्रीय भाषाओं का ही प्रयोग होता है।हिन्दी तो कोई भी सही शुद्ध नहीं बोलते कुछ एक राज्य को छोड़कर।मगर हिन्दी के उच्चारण को लेकर साऊथ इंडिया सबसे बदनाम।
इनके उच्चारण का प्रयोग सिने जगत में जम कर होता रहा है।मनोरंजन का एक हिस्सा हमेशा से रहा साउथ इंडिया का हिंदी उच्चारण।मुझे याद है मेरे छोटपन में हमारे पड़ोसी सिंह जी,मिश्रा जी, झा जी, उपाध्याय जी, श्रीवास्तव जी, ( मुंगेर, सहरसा, जमुई, पटना समस्तीपुर, मुझ्झापरपुर, दरभंगा, मधुबनी, भागलपुर....) विभिन्न जिलों वाले रहते थे।बोलते तो सब बिहारी मगर सबके प्रांत के अलग अलग उच्चारण।पड़ोस में मिश्रा जी ( मैथिली) नऐ नऐ आए थे।हिन्दी भी मैथिली में ही बोलते ।
मिश्राइन चाची को सब शंभू मां ( शंभू की मां) कहकर बुलाते थे।बिहार में यह प्रचलन है.....
जो भी घर का बड़ा (पहला) बच्चा होता है उसी का नाम आगे रखकर उनकी मां को बुलाया या संबोधन किया जाता है।मां मेरी साउथ से थी और उन दिनों में हिंदी ना के बराबर आती थी।
एक दिन की बात है.....मिश्रा जी ने नीचे से आवाज लगाई (मिश्रा जी का घर उपर माले में था) ......... शंभू म्यां .....
पूरे मोहल्ले को सुनाई दे रही थी....मां ने भी सुना.....मां को लगा शायद बिल्ली देखने को कह रहे!फिर एक दिन मिश्राइन चाची ने हमारे घर में दस्तक दी......
ललता म्यां ( ललिता मेरी बड़ी बहन का नाम है) .....
ललता म्यां......फिर पुकारा चाची ने.....
मां को लगा बिल्ली घर में घुस गई है शायद यही बताने मिश्राइन चाची आई है।मां इधर उधर खूब ढूंढने लगी ।चारों तरफ नज़रें फिराएं.....
ललता म्यां...... फिर से मिश्राइन चाची ने आवाज लगाई ।
इस बार मिश्राइन चाची थोड़ी खींज गई थी।हम आपको ही पुकारते हैं.....
मेरी मां ने कहा ओहो.... अच्छा।
क्योंकि इससे ज्यादा हिन्दी मां को उस समय आती नहीं थी।म्यां म्यां पिल्ली .... मां ने पूछा ( बिल्ली को तेलुगु में पिल्ली कहते हैं).....
इस बार मिश्राइन चाची को हंसी आ गई।खूब जोर जोर से हंसने लगी।
और अपनी अशुद्ध हिन्दी में समझाने लगी।कहां ललता म्यां से मतलब ( ललिता की मां)! हां....
मां को उस दिन इक नया अनुभव तथा शब्द ज्ञान हुआ।
और यह पता चला कि.....
वैसे ( मैआ सही उच्चारण)
(मगर जल्दी से और शब्दों को खींच के रगेद के बोलने की वजह से मैआ की जगह म्यां ही सुनाई देती)
दूसरा कारण मैथिलियों में पान खाने की आदत.....मुंह में इक पान तो रहना आवश्यक।
दिनभर में कितनी पान चबा जाते हैं कोई ठिकाना नहीं।
हर मैथिलियों के घर में पानदान, सरौता, पान, सुपाडी, कत्था, जर्दा और पान के बाकी मसाले तो अवश्य रूप में मिलेंगे ही।पान इनके जीवन शैली का आवश्यक अंग है।)ऐसे ही सबके बीच रहते मां की हिन्दी अच्छी हो गई।हमें भी हिन्दी मां ने ही पढ़ाया।
ऐ सब संभव हुआ जिज्ञासु प्रवृत्ति और सामाजिक सामंजस्यपूर्ण व्यवहार के कारण।
वैसे ही ईक और सामंजस्यता का जीता-जागता उदाहरण बाबा ( मेरे पिताजी) जिनके अधिकतर सहकर्मी बंगाली थे।आठ घंटे की ड्यूटी में उन्हें बांग्ला भलीभांति आ गई।आज भी बाबा बांग्ला इतनी साफगोई से बोलते हैं कि बोलना मुश्किल है कि वो बांग्ला भाषी नहीं है।
बहोत ही मीठा उच्चारण बिना किसी अशुद्धि के।ऐसे ही अगर आप साउथ में चले जाएं।
जैनी, मारवाड़ी, पंजाबी आप सबको तेलुगु बोलते सुन सकते हैं।अच्छा लगता है जब आप अपनी भाषा दुसरों की ज़ुबान से सुनते हैं।यहां इन सब संदर्भों को कहने का सबब सिर्फ इतना ही है कि भारतीय लोगों की खासियत है कि ऐ विषय परिस्थितियों से भागने में नहीं उसे समझने में और सीखने में यकीन रखते हैं।
दूसरी संस्कृतियों को सीखना उसे अपनाना तथा वक्त पर सरलता से स्वीकार्य करना हम भारतीयों की खासियत रही है।हममें तो इतनी विषमताओं में भी सर उठाकर जीने की कला है और ऐसी ही न जाने कितनी ही प्यारी बातें बातें हैं जो हमारी संस्कृति के केनवास को और विशालकाय बनाती है।इस विशालकाय नीले सामयाने के तले विभिन्न विचारधाराएं विभिन्न रंगों के रूप में रहते हैं।
हर रंग का अपना ही महत्व।भारतीयों में यह लचीलापन ही है जो भारतीय मूल्यों, सनातन संस्कृति, विरासत को सहेज कर रखे हुईं है तथा इन्हीं कारणों से देश-विदेश में अपनी धाक जमाने में सिद्ध है।गर्व है मुझे अपनी विरासत पर ❗