चिक वाली
चिक वाली
बहुत कोशिश करने के बाद भी सुख्खी कपने बाप को बचा नहीं पाई। मना किया था सुख्खी और उसकी मां ने कि मत जाओ। पर रसोई की खातिर वो चला गया। घर वापस लौटते ही देर रात उसकी तबीयत बिगड़ने लगी। रात तो जैसे-तैसे कट गई। सुबह होते ही सुख्खी अपने बाप को लेकर अस्पताल भागी। वहां उसे एडमिट कर लिया गया। दस दिन निकल गये। सुख्खी के बापू जिन लोगों की दिल खोलकर तारीफ किया करते थे उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए और उसके बापू कोरोना की भेंट चढ़ गए।
सुख्खी घर में सबसे बड़ी थी। उसके कंधों पर छोटे भाई-बहनों की परवरिश की जिम्मेदारी आ गई। वो पचपन से बापू को चिक बनाते हुए देखा करती थी। एक-दो बार वो चिक कसने भी गई थी। एक दिन उसने अपनी मां से कहा - "माई! मैं बापू के हुनर को जिंदा रखना चाहती हूं।" मां ने तिरछी नजरों से देखा और बोली - "तू! तू करेगी ? दिमाग तो नहीं चल गया तेरा ? तू जाने भी है कि कैसे कसै हैं ?"
सुख्खी आत्मविश्वास भरे लहजे में बोली - "हां जानूं हूं। बचपन से देखती आई रही हूं।"
मां ने समझाते हुए कहा - "कहना आसान है करना नहीं। कितनी मुश्किलें आती हैं तुझे पता भी है ?"
"जानूं हूं। कितनी मुश्किलें आती है।" फिर थोड़ा मायूसी भरे अंदाज में बोली - "मां घरों में साफ-सफाई और बर्तन मांज कर घर का चुल्हा तक ठीक से नहीं जल पाता। फिर इन इन दोनों छोटों की पढ़ाई-लिखाई कैसे होगी ? छोटे इधर उधर हांडता फिरै है। मेरी मदद करेगा तो चार पैसे आएंगे हाथ में।"
मां ने सहजता से कहा - "बात तो तेरी ठीक है सुख्खी लेकिन तुझ से कौन बनवाएगा चिक ? ये सोचा है तूने।"
"मां हाथ-पे-हाथ धरे भी तो नहीं बैठ सकते। कुछ तो करना पड़ेगा ना। मुझे नौकरी कोई देगा नहीं। याद है ना तुझे बापू ने कित्ते लोगों से कहा था मेरी नौकरी के लिए किसी ने दी।"
मां चुप रही। मां को चुप देख सुख्खी भी वहां से उठकर चली गई। उसने प्रण कर लिया था कि वह चिक बनाने का काम शुरू करेगी। कोशिश करने में क्या हर्ज है। ऐसा नहीं है कि काम नहीं मिलेगा। मिलेगा काम। जरूर मिलेगा। शुरुआत में कम ही मिलेगा पर मिलेगा जरूर।
सुख्खी ने रात में छोटे के दिल की बात जानने के लिए उससे पूछा - "छोटे बापू को गये चार महीने हो गए हैं। तू क्या करने की सोच रहा है।"
"किस बारे में जिज्जी ?" उसने संक्षिप्त सा उत्तर दिया। सुख्खी ने छोटे की तरफ तिरछी नजर से देखा और बोली - "काम-धंधा के के बारे में। मुझे लगता है तेरा मन पढ़ाई-लिखाई में तो है नहीं। कोई बात नहीं मत पढ़ लेकिन कुछ काम-धंधे के बारे में तो सोच। मां कब तक झाडू-पौछा और बर्तन मांजती रहेगी दूसरों के घरों में। इधर-उधर हांडते रहने से अच्छा है कुछ काम के बारे में सोच। हांडना अच्छी बात नहीं है छोटे।"
सुख्खी की बात खत्म होते ही छोटे बोला - "जिज्जी मैं इधर-उधर हांडता नहीं हूं। मैं तो….।" मां को आते देख छोटे चुप हो गया। सुख्खी को हैरानी हुई। उसने छोटे की तरफ देख कर इशारे-इशारे में पूछा क्या हुआ ? क्यों चुप हो गया ? छोटे कुछ कहता इससे पहले ही मां ने कहा - "रात हो गई है। अब सो जाओ।"
सुख्खी ने कहा - "आते हैं मां। आप सो जाओ। हम थोड़ी देर बाद आएंगे।" मां के जाते ही छोटे ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - "मैं चिक बनाना सीख रहा हूं। कल्लूराम चाचा के पास।" वो अपनी बात पूरी करता इससे पहले ही सुख्खी बोली - "पगले मुझे तो बताता। चिक बनाना तो मुझे अच्छी तरह से आता है। बापू ने सिखाया था।"
"जानता हूं जिज्जी। लेकिन बापू चिक बनाने का सारा सामान कहां से लाते थे ये न मुझे मालूम है और न तुम्हें।"
"हां ये बात तो है छोटे। ये तो मुझे भी नहीं मालूम। और सच कहूं तो इस बारे में मैंने कुछ सोचा ही नहीं।"
"मेरे दिमाग में शुरू से ही ये बात दिमाग में थी। मैंने सोचा कि तुम से कहूंगा तो पता नहीं तुम मानोगी या नहीं। बस! इसीलिए मैं कल्लूराम चाचा के पास जाने लगा। कुछ दिनों तक तो सिर्फ मैं ऐसे ही बैठ जाता था उनके पास। उन्हें चिक बनाते देखता। फिर एक दिन मैंने चाचा की गैरमौजूदगी में चिक का एक हिस्सा बनाया। उसे देखकर वो बहुत खुश हुए। फिर एक दिन मैंने बातों-बातों में पूछा कि सामान कहां से लाते हो। जानती हो जिज्जी ! वो मुझे अपने साथ ले गए। और-तो-और दुकानदार बापू को भी अच्छी तरह से जानता है। बापू भी वही से लाते थे सारा सामान।"
यह सब जानकर सुख्खी के दिल का बोझ हल्का हो गया। अब दोनों भाई-बहन चिक बनाने लगे थे।