छत्तीस का आंकड़ा
छत्तीस का आंकड़ा
ये इस साल का मेरा पहले लेख है, कई बार कोशिश करी थी पहले लिखने की कलम भी उठाई पर कुछ लिख नही पाया, शायद विश्व मे फैली इस महामारी ने मेरे दिमाग मे गहरा असर कर दिया है। खैर आप लेख पढ़ने आएं है मेरी कहानी सुनने नहीं...
पटवारी से मेरा और मेरे भाई का छतीस का आंकड़ा था। मेरे घर से लगभग 500 मीटर दूर उसका घर था, इतनी दूर होने के बावजूद उसकी छत मेरी छत से दिखती थी। पर हम एक दूसरे को फूटी आंख नही सुहाते थे। ये बात उन दिनों की है जब मैं मेरी नानी के घर रहा करता था और उन दिनों न पब्जी का ट्रेंड था न ऑनलाइन लूडो, न घर के बच्चे यूट्यूब और इंस्टाग्राम चलाया करते थे। ये बात है उस समय की जब हम लुका छुपी, बर्फ पानी, पकड़म पकड़ाई, पोसम पा, चैन चैन जैसे न जाने कितने ही खेल खेला करते थे।
उन्हीं में एक खेल या यों कह लें शौख था पतंगबाजी का। हम अपने मोहल्ले के प्रो नही थे पर नूब भी नहीं थे। पतंगबाज़ी का हमे इतना शौख था कि गर्मी की चिलचिलाती धूप में हम स्कूल से आकर खाना बाद में खाते थे छत पर पतंग आई या नहीं वो पहले देखने जाते थे, और कहीं अगर धोखे से कोई पतंग छत पर मिल गयी तो समझो पब्जी वाला 'विनर विनर चिकन डिनर'। ताजुब की बात ये है कि तब 2 रुपये में 4 पतंगे मिलती थी और 4 रुपये की सद्दी, कभी कभी हम अपनी पेंसिल के पैसे बचा कर पतंग ले आते तो कभी पतंग के साथ चटपट। घर के पीछे ही बादल पतंग वाले कि दुकान थी जहां बड़े बड़े पतंगबाज़ अपनी पतंगबाज़ी के किस्से सुनाया करते थे और अपने से छोटों को तमाम तरह के पेंच लड़ाने और पतंग के कन्ने बनाने का ज्ञान दिया करते थे, और एक लंबी चठिया लगा करती थी और तमाम प्रकार के मंझे पर लंबी लंबी वार्ता हुआ करती थी, प्लास्टिक वाला अच्छा है या लाल वाला या हरा रंग वाला मांझा, किसमे कांच है किसमे घोड़े के पूंछ के बार। हम छोटे थे इसलिए पन्नी की पतंग उड़ाया करते थे और जिस दिन हम 2 रुपये वाली सद्दी को पूरा खोल कर उड़ा दिया करते थे उस दिन किसी से सीधे मुँह बात नही किआ करते थे।
मोहल्ले के पतंगबाज़ होने के साथ साथ हम लंगड़बाज़ भी थे, जिनको नहीं पता उन्हें बात दूँ की लंगड़ पतंग लूटने के लिए बनाया जाता था अपने मंझे में ईंट का टुकड़ा बांध कर। खैर तो भई इस पतंगबाज़ी में हमारे कई दुश्मन बना दिए थे, कोई हमारा दुश्मन था, किसी के हम दुश्मन थे और कुछ मामलों में हम एक दूसरे के दुश्मन थे। दुश्मनी का सिलसिला कुछ यों था कि कभी कभी हम भाई की आपस मे लड़ लेते थे और एक दूसरे की ही पतंग काट देते थे। इसी दुश्मनी के नतीजन हम भी आपस मे लग लिए करते थे और मक्कन निकालने वाली मथानी वाले खंम्बे से हमे बांध कर हमारी खूब पिटाई होती थी, और हमारी माएं हमे मार कर हमसे पूछती थी, ' अब लड़ोगे ? हम कहते थे नहीं तो फिर बोलती थी नही ऐसे कैसे, तुम लोग और लड़ोगे और हमारी तबियत से पिटाई होती थी। इन्ही दुश्मन में शामिल से हमारे बगल में रहने वाले हमारे गौरव मामा, हमारे घर के सामने चड्ढा का घर और बगल वाला ऊंचा दुर्गा जी का मंदिर और वो नामाकूल पटवारी, चड्ढा के तो मन ही मन हम कई नाम बना चुके थे, दुर्गा माता से डरते थे, और रही बात पटवारी की तो उससे हमारा छत्तीस का आंकड़ा था, कभी वो हमारी पतंग काटता था कभी हैं उसकी पर 'वे वर एट एडवांटेज' क्योंकि हमारा घर पटवारी के घर से 500 मीटर पीछे था और अक्सर हवा हमारे घर की ओर चलती थी तो उसकी पतंग हम काटते कम थे और लूटते ज्यादा थे, और उसकी तरफ मुँह बना कर उसे चिढ़ाने के साथ साथ पटवारी पटवारी चिल्लाते भी थे। ये सब तब हुआ करता था जब घर छोटे हुआ करते थे,
अगल बगल खेल खलियान होते थे और एक मंजिला या बहुत ज्यादा दो मंजिला मकान हुआ करते थे, और छत से छत जुड़ी हुआ करती थी, तब शायद इंसानो में लालच कम था, धैर्य, प्रेम और सहनशीलता कूट कूट कर हुआ करती थी।
हम तड़क कर दूसरों की छत पर पतंग लूटने चले जाया करते थे। आज 11-12 साल बाद मुझे पतंग उड़ाने का मौका मिला और छत पर पहुँच कर एहसास हुआ पतंग उड़ाऊँ कहाँ, हर तरफ तो ऊंचे-ऊंचे मकान है। मकानों के बढ़ते कद के साथ शायद इंसानो की सहनशीलता और प्रेम का कद छोटा होगया है, इसलिए लोग घर मे कैद हैं और पब्जी खेल रहें है और दिनभर बस टीवी से चिपक कर बैठे रहते हैं। एक बार निकलो तो घर से भले पतंग मत उड़ाना, उड़ते हुए पंछियों को ही देखना, तुम्हे सुकून मिलेगा, ये वादा है मेरा। बचपन की उन पतंगों के साथ हमारे सारे दुःख, परेशनिया उड़ जय करती थी, अब पतंग न सही तुम उन पंछियों के साथ ही अपनी सारी परेशानियां उड़ा दो।