मेरा शहर
मेरा शहर
सर्द हवाओं और सनसनाती गाड़ियों बीच मैं भी स्पेलेंडर प्लस की पीछे वाली सीट पर बैठा मज़े लिए जा रहा था।
अंधेरी सड़कों पर नन्ही नन्ही गाड़ियों की जलती लाल पीली बत्तियां देखने में आज कुछ अलग ही मज़ा आ रहा था। ऐसे लग रहा था मानो आज सड़कों पर त्यौहार मानाने निकले थे लोग। इतनी ठण्ड में अक्सर खाट पर कंबल ओढ़ने के बावजूद किताब खोलते ही ठंडी लगती थी वहां तेज़ रफ़्तार में भागती गाड़ी में भी अलग की गर्मी थी। पहली बार मुंह से निकलती सफ़ेद धुंए नुमा भाप का कलात्मक प्रयोग सीखा था। इन सर्द हवाओं में कुछ अलग ही सुकून था। इतना सुकून की मैं और मेरा साथी रास्ता भटक गए थे और वहां का रास्ता जहाँ हम पले बढ़े थे, स्कूल और कोचिंग से भागे थे।
ताज्जुब तो इस बात का है कि हमें रास्ता भूलने का गम ही नहीं था। हम तकरीबन 50 किलोमीटर भटके, कभी इस गली कभी उस गली। बढ़ती स्पीड और तेज चलती हवाओ के बीच मेरी आँखें सुकून में हलकी कभी बंद होती कभी खुलती। कुछ दूर पर जब मेरे साथी ने चाय की टपरी पर गाड़ी रोकी तब होश आया, पता नहीं क्या सोच रहा था ? शायद यही की शहर बदल गया है या मैं, लोग बदले हैं या लोगो का नजरिया, इस कश्मकश में ही था कि दो चाय मेरे सामने वाली मेज पर आ धमकी, पर मैं मस्त सोचे जा रहा था, थोड़ी देर बाद मेरा ध्यान चाय के प्याले से उठती भाँप की तरफ गया और वो ऐसा लगा जैसे वो चाय का प्याला मुझसे कह रहा जो अमा ड्रामे हो गए हों तो जल्दी पियो और चलते बनो, बड़े आए दार्शनिक।
मन ही मन मेरे मुस्कान तैर गयी और मैंने फट दे चाय का प्याला उठाया और अपने होठों से लगाया, चाय का एक घूँट अंदर जाते ही ऐसे लगा मानो समूचे शरीर में जान आ गयी हो, एक बार को चाय पी कर शायरी करने का दिल किया। फिर देखा यहाँ तो बस लाल पीली बत्तियां हैं जिन्हें अपने दिल की भी सुनने की फुर्सत नहीं तो हमारी शायरी क्या चीज़। चाय खत्म कर जब वापिस गाड़ी पर बैठा तो महसूस हुआ कि हवा में कुछ नशा सा है, ये ठण्ड शाम की थी या रात की समझ नहीं आया आसमान में टिमटिमाते तारे मानो नीचे की गाड़ी की बत्तियों से रेस लगा रहे हों।
हर लम्हा खूबसूरत था, कोहरा मानो ऐसा लग रहा था जैसे नई नवेली दुल्हन ने लजा कर सफ़ेद चादर अपनी ओर खींच ली हो। टिमटिमाती बत्तियां उसकी साड़ी के गोटे समान लग रहीं थी। उस दुल्हन नुमा शहर को जी किया अपनी बाहों में भर लू। फिर लगा मुक्त रहने दूँ ज्यादा खूबसूरत लगती है। ऐसे ही नशे में शाम कब गुज़र गयी पता ही नहीं चला। बस वो नशा रगों में बसा है जब शाम परवान चढ़ती है तो एक कश लेकर यादें ताज़ा हो जाती हैं। क्या पता अब इस शहर में अब कब आना हो।