अस्पताल में तोते वाला
अस्पताल में तोते वाला
हाँ, मैं मानता हूं ये शीर्षक बड़ा अलबेला है, पर ये सच है। थोड़ा अटपटा है पर सच है। अस्पताल जैसी जगह में यह देखना थोड़ा अजीब लगता भी है। हुआ ये कि मैं कुछ दिन पहले अपने वीजा के सिलसिले में पंहुचा किंग जार्ज मेडिकल विश्वविद्यालय, लखनऊ।
अब इंसानी फितरत ऐसी है कि चीज़ों के नाम के हिसाब से अपनी मानसिकता बना लेता है। अस्पताल की बात सुन कर मेरे मन में भी करुणा दया के भाव उठ खड़े हुए। एक अजीब सी शांत उदासीनता मन में छा गयी। पहले मन किआ लौट चलूँ वापिस पर अब आ गए थे और काम भी करवाना था तो बस चलते रहे। धूप तेज़ थी, हेलमेट के अंदर भी सर जल रहा था। बेचैनी बढ़ रही थी। मैं फिर से अपनी स्प्लेंडर को भगाए जा रहा था।
अस्पताल में दाखिल हुआ, पार्किंग लॉट में गाड़ी खड़ी करी पीली पर्ची हाथ में थामी और भीड़ का हिस्सा बन गया। खो गया मरीजों और तीमारदारों की भीड़ में। अंदर पहुंचा तो ऐसा लगा मानो सारा शहर ही बीमार हर ओर मायूस लटकते चेहरे, चुप्पी साधे पर बहुत कुछ बोलते चेहरे पर सबकी चुप्पी का एक ही मतलब था, उदासी, मायूसी, तड़प,दुःख बस और कुछ नहीं।
यह सब देख कर मन और दुखी हो गया। फिर याद आया, यह संसार है ही ऐसा। जो आज है उसे कल मिटना ही होगा। इतना सोच ही रहा था तब तक किसी ने पीछे से ज़ोर का धक्का मारा और बोला अरे भाईसाहब आपको कोई काम है तो उस ओर जाइये यहाँ खड़े होकर बेवजह दूसरों को परेशान मत कीजिये। मुझे इस बार बहुत गुस्सा आया । नामुराद ने अच्छे खासे आते विचारों को धक्का दे दिया। फिर मैंने भीड़ की ओर नज़र उठाई सरकारी अस्पताल का बोर्ड देखा और मन ही मन मुस्कुरा कर आगे बढ़ गया।
अगली बारी लाइन में लग कर पर्चा कटवाने की थी। लाइन देख कर एक बार को तो मन किया कि अपने हथियार डाल दूँ पर ऐसे कैसे, हम भी ढीठ थे, घुस गए अकेले लाइन में उसके बाद जो सिलसिला चला है धक्कों का। भाईसाहब इधर हटिये उधर जाइये, कभी कभी अस्पताल के कर्मचारियों और तीमारदारों की लड़ाई का सिलसिला चलता रहा और हम भी उस लड़ाई में दो चार बार घायल हुए पर हिम्मत नहीं हारे। किसी ने हमारे पैर के अंगुठे तोड़े, किसी ने उंगलियां। इतना यहाँ से वहां दौड़ लिए की मत पूछिए। अगर इतना मैराथन में दौड़ लिए होते तो विश्व की सबसे बड़ी मैराथन में अव्वल आते। खैर ये तो मन को समझने वाली बात है। किसी तरीके से सारा काम खत्म किया। अपने हाथों में सुइयां भूकवाई, खून दिया और चलते बने फिर उसी धक्का मुक्की में, उदासी में, मायुसियत में अस्पताल के बाहर।
निकले तो पता चला बारिश हुई है। पानी से अस्पताल की सड़कें स्विमिंग पूल बन गया था। लोग चाय की टपरियों पर अपना उदास आशियाना बना चुके थे, कि एकाएक मेरी नज़र एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति पर पड़ी, जिसकी उम्र लगभग 55-60 वर्ष के आस पास होगी। वो बारिश होने के बावजूद एक अस्पताल के बाहर एक कोने में बांस को डंडी से रंग बिरंगे गुब्बारे और साथ में हरे रंग के प्लास्टिक के तोते बेच रहा था।
मुझे यह देख कर अजीब लगा, समझ नहीं आया की क्या है ये ?
एक पल को तो लगा या तो इस आदमी के भीतर की तमाम मानवीय भावनाएं मिट चुकी हैं, या तो यह इतना मजबूर है कि इसे पता नहीं है कि अपनी रोजी रोटी के लिए कहाँ जाए। क्या सही जगह है पर मेरे दिमाग ने मुझे एक सुझाव और दिया ये भी तो हो सकता है ये कोई एक ऐसा फरिश्ता है ईश्वर का, जो तमाम उदासी और मायूसियात के बीच तनिक सी खुशियां तनिक सी बहार लाने बैठा है कि शायद इन्हें देख कर ही लोग अपने भीतर जीने की, अपनों के तबीयत की मरम्मत की उम्मीद पाल लें। यह सोचते सोचते मैं बहुत खुश हो गया, इतना खुश की पूरे दिन में मुझ पर हुए सारे ज़ुल्म मैं भूल गया। मैं उस गुब्बारे वाले की तरफ बढ़ा की पुछूँ तो सही की वह यहाँ क्यों खड़ा है पर फिर इस डर से थम गया कि कहीं उसका जवाब मेरी सोच से भिन्न न हो।
मैं अपनी गाड़ी से उसके बगल से निकला पर उसकी तरफ बिना देखे आगे बढ़ गया और उसे ऊपरवाले का फरिश्ता मान कर घर आ गया। उसकी सच्चाई जानने की दिल में आरजू बहुत थी पर अपनी आरजू को अपनी मुस्कराहट के पीछे दबा कर मैं आगे बढ़ गया।