सफर, मुसाफिर तो मिलते रहेंगे।
सफर, मुसाफिर तो मिलते रहेंगे।
कभी देखा है एक गरीब को रिक्शा चलते हुए,
खैर देखा होगा, उस रिक्शा पे बैठे हो?
खैर बैठे होगे
कुछ ख्याल आता है मन में?
मेरे आया,
आज जब बैठा उस बूढ़े के रिकशे पर तो एक आह सी, एक टीस सी उठी, उसके चेहरे पर वो सदा के लिए पड़ चुकी झुर्रियां,
चेहरे पर झूलती खाल
अपनी लाचारी छुपाने के लिए
क्या मस्ती में बातें किए जा रहा था
मुँह से निकलती आह को धुंए में उड़ाता चला जा रहा था
जी तो किया अभी उठ कर उसका रिकशा ले लू और खुद खींच डालू रेलवे स्टेशन तक।
रिकशे की रफ़्तार धीमी थी पर मेरे ह्रदय की धड़कन नहीं।
पल पल खुद पर घृणा आती जा रही थी। खुद को कोस रहा था कि क्यों फ़िज़ूल ही रिकशे पर चढ़ गया मैं, पैदल ही चला जाता फिर सोचा इसकी रोज़ी का क्या होता? एक पल को सुकून मिला।
ठण्ड से मेरा शरीर जितना स्थिर था मन उतना ही विचलित। ये सोचते सोचते न जाने कब सफर खत्म होगया।
रिकशे से उतरा तो जी किया। अपना सारा बटुआ उसे दे दूँ
पर न जाने क्यों हिम्मत न पड़ी।
मेरा मन द्रवित हो उठा, मैंने बैठने से पहले किराया 40 रूपए तय किया था पर न जाने क्यों मैंने उससे पूछा "दादा कितने पैसे लोगे?", शायद मैं सोच रहा था क्या पता खुद ही ज्यादा पैसे मांग ले, पर उसने मुस्कुरा कर कहा "बाबू चालीस रूपए", एक बार फिर मेरे मन ने कहा इसका रिक्शा उठा कर दौड़ा दूँ सारे शहर में, फिर सहसा मेरे मन ने मुझे याद दिलाया तू मजबूर है तुझे चलना है सफर तय करना है। इतना सोच ही रहा था कि उस बूढ़े ने मुझसे कहा "बाबु जी पैसे?" मेरा ध्यान अचानक टूटा मैंने उसे न चाहते हुए भी 40 रूपए दिए और अपना झोला उठाया और बढ़ गया अपने स्टेशन की तरफ। पर उसकी वो झुर्रियों वाली मुस्कान भूली नहीं जाती उसके मुंह से निकलती वो मजबूरी की हवा जो आज हमारे चारो तरफ है देख कर मन में ऐसी वेदना उठती है कि बस कराहने के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं।
खैर हो सका तो कुछ समय से सब भूल जाऊंगा। आखिर मुसाफिर हूँ।
खैर साल के आखिर दिन ही सही मैंने ये सीखा सफर है, चलता रहेगा राहगीर है मिलते रहेंगे।
बस तू रुक मत चलता जा दौड़ता जा । चलता जा दौड़ता जा।