छाया (लघुकथा)
छाया (लघुकथा)
सच कहूँ, सचमुच मुझे अकेलापन बिल्कुल महसूस नहीं होता। तुमने जैसा अहसास कराया हमेशा, वैसा ही आज भी अहसास होता है। हक़ीक़त कह लो या तसव्वर, ज़माने ने कम से कम हमारे फ़साने को रत्ती भर भी तब्दील नहीं किया। मालूम क्यों? , क्योंकि आज भी मैं तुम्हारी दी हुई तालीमयाफ़्ता दो बाहों में मैं यूँ झूल रही हूँ, जैसे कि मानो तुम्हारी ही बाहों में झूल रही हूँ,
सच्ची, अपने हमसफ़र के दरमियाँ जिस तरह तुम मुझे मेरी बीमारी की हालत में डॉक्टर की सलाह पर घुमाने ले गये थे, बाहों में बाहें डाले आगरे का ताजमहल दिखाया था न तुमने मुझे, और जिस तरह तुम माह-ज-रमज़ान की सहरी के वक़्त मुझे शहर के पार्कों में ले जाया करते थे फ़ज़र की नमाज़ अदा करने के बाद, हाँ, वैसे ही, ठीक वैसे ही तुम्हारे दोनों लाडले बच्चे मेरे इस बुढ़ापे में मेरा बहुत ख़्याल रखते हैं, वही रुटीन है, दोनों बच्चे उतना ही पढ़-लिख कर उतने ही ऊंँचे मकाम पर पहुँच गये हैं, जैसा तुम ख़्वाबों में सोचा-बुना करते थे। बेटा प्रोफेसर बन गया और बिटिया अपना ख़ुद का बिजनेस संभाल रही है। उनकी शादी मज़हबी तालीमयाफ़्ता उँची पढ़ाई-लिखाई वालों में ही करेंगे, सो अभी ज़ल्दबाज़ी नहीं कर रहे; न तो मैं और न ही दोनों बच्चे। वे तो अभी और तरक़्क़ी हासिल करना चाहते हैं शादी करने से पहले, लेकिन ऐसा नहीं है कि वे अपनी अम्मीजान को भूल जाते हों,
आज माह-ए-रमज़ान का अलविदा जुमा है। हम तीनों रोज़े से हैं। आज दोनों बच्चे मुझे क़ुदरत का यह नज़ारा दिखाने लाये हैं।
सच कहूँ, बहुत अच्छा लग रहा है इस ख़ूबसूरत जगह पर यूँ झूला झूलते हुए। दोनों बच्चे मेरा बहुत ख़्याल रखते हैं। दोनों यहीं-कहीं पार्क में योगा कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे कि मानो तुम भी यहीं-कहीं हो। अनुलोम-विलोम कर रहे हो या फ़िर वैसी ही वाली पोजीशन बना कर ध्यान में मगन हो, और मेरा ध्यान, अल्लाह क़सम हर रोज़ तुम्हारी यादों में खोई रहती हूँ कमबख्त़ ये बच्चे अपनी ख़िदमात से तुम्हारी ही याद तो दिलाते रहते हैं, अल्लाह सबको ऐसा शौहर और ऐसी औलाद दे।