चबूतरा
चबूतरा


मंदिर के चबूतरे पर बैठा वो मंदिर के प्रांगण को सूनी आँखों से देख रहा था। उसके मन मस्तिष्क में आज से चार साल पहले के दृश्य के घूम रहे थे....
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मंदिर में घंटों की आवाज़ के बीच आरती का प्रसाद लेते हुए उसकी नज़रे यकायक एक चेहरे पर टिक गईं थीं। सादगी से भरा एक खूबसूरत चेहरा पूरी तरह पसीनों से भीगा हुआ था। घूम घूम कर वो सबको प्रसाद बाँट रही थी। एक असीम उत्साह और मासूमियत थी उस चेहरे पर। वो उसे देखने में कुछ यूँ खोया कि सामने खड़ी लड़की कब उसके हाथों पर प्रसाद रख चली गयी उसे पता न चला। वो जब थाली लिए उसके आगे आई तो उसके फैले हाथों पर प्रसाद देख खिलखिला पड़ी। उस हँसी में जैसे उसे दो जहान मिल गए थे। उस शाम वो पूरी तरह उन आँखों का हो गया। और उसे खबर भी न हुई कि उसकी आँखों में भी कोई खो चुका था। छुप छुप कर उसे देखती वो लड़की भी उसकी ओर आकर्षित हो चुकी थी।
और ये आकर्षण कब प्यार में बदला, उन दोनों को पता न चला।
लड़के को उसकी सादगी पसंद थी और लड़की को उसकी आँखों की सच्चाई।
उसी चबूतरे पर बैठकर उन दोनों ने अब सारा जीवन साथ निभाने की कसमें खाईं थीं।
" तुम मुझसे शादी तो करोगे न।"
"जब चाहा तुम्हें है तो ब्याह भी तुमसे ही करूँगा।"
लड़की उसकी इस बात पर निहाल हो उठती। उसके बाबा एक मजदूर थे। घर से कमज़ोर उसके बाबा पर उसका और उसके दो छोटे जुड़वा भाई बहन का भार था। उधर लड़का भी एक साधारण परिवार से था। इस देश के लिए कुछ करने का जज़्बा लिए वो सिविल सर्विस की तैयारी कर रहा था। अपने लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाते हुए उसने एक आखिरी बार इसी चबूतरे पर उस लड़की से वादा किया था।
"तुम मेरा इंतेज़ार करना, मैं तुम्हारे लिए कुछ बनकर वापिस ज़रूर आऊँगा।"
उसकी आँखों में इंतेज़ार छोड़ वो चला गया था, अपने सपने को पूरा करने।
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कंधे पर हुए एक कोमल स्पर्श ने उसे वर्तमान में ला दिया। उसके सामने वो लड़की खड़ी थी। माँग में सिंदूर और आँखों में सूनापन लिए।
"तुम यहाँ?"
"हाँ, चली आती हूँ, जब भी तन्हा महसूस करती हूँ।"
"तुम मेरा इंतेज़ार नहीं कर सकती थी?"
"बाबा अचानक ही चले गए। उनके जाने के बाद मेरे भाई- बहन की ज़िम्मेदारी मुझपर आ गई। बाबा ने इनसे कर्ज़ लिया हुआ था, उस कर्ज़ के बदले में इन्होंने मुझे अपना लिया। मेरे पास कोई और रास्ता नहीं था। इनके कारण मुझे रोटी की दिक्कत नहीं हुई, भाई और बहन की ज़िम्मेदारी भी इन्होंने ले ली। मुझे माफ़ कर दो।"
"क्या तुम खुश हो?"
"क्या फर्क पड़ता है? ज़रूरते तो खुश हैं।"
अपनी आँखों के कोरो की नमी को छुपाती वो मुस्कुराई। उसकी मुस्कान देख वो भी मुस्कुरा दिया।
मन में एक दूसरे के लिए हमेशा के लिए रहने वाला मूक प्रेम लेकर दोनों अपने रास्ते निकल गए। पीछे रह गया उन दोनों के वादों और चाहतों का गवाह,वो मंदिर का चबूतरा।