चौकीदार
चौकीदार
बरामदे के चारपाई पर बैठे –बैठे अपने धार्मिक ग्रन्थों में खोए रहते थे, आज भी शायद उन्हीं में खोए थे कि अचानक बगीचे के फूलों को छोटे –छोटे बच्चों द्वारा तोड़ते देखकर जोर से चिल्ला उठे कौन है भागो, भागो यहाँ से उनकी आवाज़ को सुनकर बहू सुधा अंदर से बाहर आई
"क्या हुआ.. क्या हुआ"
बाबूजी "कुछ नहीं कुछ बदमाश बच्चे बगीचे के फूलों को तोड़ रहे थे खिले हुए कितने अच्छे लगते हैं"
सुधा अंदर आकर बुदबुदाने लगी कैसे चिल्लाए जैसे प्राण ही निकल जाए इनको समझ नहीं है यह गाँव नहीं शहर है कहीं जाते भी नहीं दिन भर ही बरामदे की चारपाई और अपनी ग्रन्थ इतना ही पुजारी बनना है तब कोई मन्दिर में चले जाए, अगल –बगल के लोग क्या कहते होंगे। उधर सुधा का बेटा कैलाश और बेटी खनक सुन रहे थे उन्होंने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा "सही कह रही हो मम्मी मैं भी देखता हूँ रास्ते से जाते हुए लोग देखते देखते जाते हैं न जाने हमलोगों के विषय में क्या सोचते होंगे" सुधा फिर बोली
"यह नहीं होता कि एकबार गाँव ही हो आएँ लेकिन मेरी जान लेकर चैन लेंगे" बाहर बैठे दीनदयाल सभी की बातें सुनकर दुखी हो उठे आँसू अपने गमछे से पोछते हुए आवाज़ लगाई
"कैलाश बेटा कैलाश बेटा कैलाश" अनमने मन से "क्या हुआ बाबा आप तो बस बिना मतलब के काम में लगे रहते हैं" बाबा बोल उठे "नहीं बेटा देखो इस लौकी की डाली सूख रही है इसमें थोड़ा खाद –पानी देने से यह फली देने लगेगा"
"मैं यह सब नहीं कर सकता मुझे पढ़ना है" यह बोलकर कैलाश घर के अंदर चला गया।
शाम में कृष्णचन्द्र के आने पर परिवार ने सारी वृतांत सुनाई और यह सुनकर वह बोले "ठीक है बूढ़े हैं और हमलोग के सिवा उनका कौन है किन्हीं को कष्ट दिए बिना एक कोने में अपने ग्रन्थों में खोए रहते हैं"
सुधा बोली "हाँ हाँ एक कोना कहीं जा नहीं सकती हूँ"
कृष्णचन्द्र "क्या वे रोकते हैं नहीं "
फिर सुधा बोली "बार –बार सभी से प्रत्येक बात पर पूछताछ अच्छी बात नहीं है"
कृष्णचन्द्र ने कहा "ठीक मैं बात करूँगा" यह बोलते हुए वह बाहर निकले तो देखते हैं कि बाबूजी फाटक के पास खड़े होकर कुछ कर रहे थे
कृष्णचन्द्र ने कहा "क्या कर रहें हैं बाबूजी" कुछ नहीं बेटा देखो इस फाटक की कुण्डी टूटी हुई है सोचा डोरी से बांध दूँ नहीं तो रात में खुला फाटक अच्छी बात नहीं। झुंझलाया हुआ कृष्णचन्द्र ने कहा "आप तो सिर्फ ...."
खाना खाने का वक्त हो गया था सभी खाने बैठे तो थाली में चावल सब्जी देखकर कृष्णचन्द्र ने पूछा "दाल कहाँ है ?"खनक उधर से सुधा भनभनाती है
"घर में दाल खत्म हो गई है बाबूजी भी इस बार सारा दाल अपने भतीजों को दान करके आएँ हैं" कृष्णचन्द्र के आँखें दिखाने पर भी नहीं मानी।
दीनदयाल बोला "देखो बहू जब मैं गाँव जाता हूँ तब वही सब मेरी देखभाल करते हैं"
सुधा बोली "हमलोग आपकी देखभाल नहीं करते हैं क्या ?" ऐसी बात नहीं है इस बार उनके यहाँ दाल की अच्छी फसल नहीं हुई फिर मैं कैसे उनलोगों का भार उतारूंगा इसलिए थोड़े उसे दे दिए और थोड़े तुम लोगों के लिए ले आया।
कृष्णचन्द्र ने कहा "खा लीजिए बाबूजी भोजन ठंडी हो रही है" बाबूजी दुखी मन से भोजन की ओर देखे तो वह भी सभी की भावनाओं की तरह ठंडी हो चुकी थी लेकिन भोजन का अनादर नहीं करते हुए बाबूजी खाना खा लिए और अपनी चारपाई पर लेटे हीं थे कि अब दूसरी शहनाई कानों में गूंजने लगी। उन्होंने सोचा सभी तो सोने गए क्यों परेशान करना यहीं कुछ सुखी घास पड़ी है इसी से इन मच्छरों को क्यों न भगाया जाए और सुबह इसकी राख सब्जी के पौधों पर डाल दूँगा जिससे ओंस की बूंदों और ठंड से पौधों की रक्षा होती रहेगी। सुबह उठते ही सबसे पहले इसी काम में लग गए सुधा ने देखा की बाबूजी के हाथों में झाड़ू है उसने कृष्णचन्द्र को जगाया
"देखो तुम्हारे बाबूजी तो नाक कटा देंगे और सारी बात बता दी" आधा सोया आधा जगा कृष्णचन्द्र बाबूजी पर बरसने लगा
"क्या बाबूजी आप मुझे जीने नहीं देंगे क्या जरूरी है दिनभर उल्टा –पुल्टा काम और जोर जोर से पढ़ना सभी परेशान हो गए हैं पड़ोसियों को भी चैन नहीं देते हैं " बाबूजी की बात तो मुँह में रह गई उस दिन के बाद उनके पढ़ने की आवाज़ किसी को सुनाई नहीं दी आस –पड़ोस के लोग आते जाते पूछते थे "बाबूजी आजकल आप की आवाज़ नहीं आती है आप के कारण हमलोगों के पाप धूल जाते थे"
तब सुधा बोल देती "गला खराब है" फिर भी उनकी परवाह करने की आदत नहीं गई लेकिन अब वह एक दिन अपने गाँव चले गए फिर उनकी नहीं होने की खबर आई सभी ने खूब आँसू बहाए अपनों के आँसू क्या थे? मगरमच्छ के थे या फिर पछतावे के लेकिन उस बगीचा के प्रत्येक डाली उनके साथ ही दम तोड़ रहे थे वह चारपाई भी आज उदास थी कि उसपर बैठने वाला इस घर का रक्षक नहीं रहा वह चौकीदार नहीं रहा।
