बस कुछ पल...

बस कुछ पल...

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"सब कुछ खत्म सा लगता है! शायद कुछ पल बाकी है! लगता है जैसे कुछ भी नहीं बचा अभी ज़िन्दगी में!! सब कुछ पीछे छुट गया। वो घर, वो परिवार वो माता पिता, वो बंधू, वो मित्र, सब कुछ।"

एक औरत होना ये सब अलगाव को सहज ही बना देता है।ज्यादा तकलीफ नहीं होती, या फिर वह होने नहीं देती।

एक स्त्री वैसे भी जब माँ बन जाती है वह किसी भी तकलीफ का सामना करने की योग्यता हासिल कर लेती है। सब से ज्यादा प्यार और ममता की मूरत, त्याग और धीरज की जिवंत परिभाषा, सदा ही विरोधाभासी स्वाभाव से जीने वाली !!

कैकयी और कौशल्या, कितनी सारी समानताए पर चरित्र में इतना अंतर.. सबसे बड़ी समानता - दोनों ही अपने पुत्र का सुख चाहती थी। एक औरत की सारी हदे हमें रामायण, महाभारत इत्यादि में स्पष्टता से नज़र आती है।

आखिर एक औरत के भीतर वास्तव में होता क्या है??
बहुत से विचारों का युद्ध !! हां वह हर पल खुद से चर्चा में होती है। यही चर्चा, विचार विमर्श उसके भी दिल में चल रहा था। दिल और दिमाग में स्त्री के लिए वैसे ज्यादा फर्क नहीं होता, बल्कि उसका एक अलग ही दृष्टि कोण होता है .. व्यवहारिक नजरिया।

नंदिता ने सदा ही आदर्श जीवन जिया था, हां सब के जैसे, कुछ ऐसे भी पहलु थे जीवन के जिन पर पर्दा पड़ा रहे तो ही अच्छा हो। पर वह एक आदर्श नारी थी।

"सब कुछ खत्म सा लगता है, अब आगे कुछ नज़र नहीं आता।" उसका कोई भी नज़रिया उसकी मदद को नहीं आ रहा था। "अभी तो बहुत सी मंजिले पार करनी  है, बहुत सी लड़ाइयाँ लड़नी है।" उसका दिमाग उसे चेतावनी दे रहा था। भरा भरा पूरा परिवार उसका ध्यान खींचने की कोशिश कर रहा था पर उसको दिख रहा था सिर्फ अंत।

" अगर अंत के बाद फिर शुरुआत हुई तो??? नहीं , नहीं!! फिर नहीं!! इस चक्रव्यूह को तो तोड़ना ही होगा। पर कैसे??" वह फिर सोच में डूब गयी। ज्यादा वक़्त नहीं था उसके पास। शरीर जवाब दे चूका था, साँसे बस बचाखुचा रिश्ता निभा रही थी।
वह जानती थी की सब उसको चाहते है, और कोई नहीं चाहता। सब अगले पिछले जन्मों के ऋण है जो वह चुकाती आई है। फिर ये कौन सा बंधन उसे जकड़ रहा था?

बच्चों के भविष्य की चिंता वह समय पर छोड़ चुकी थी क्योंकि वह जानती थी की मरने वाले के साथ कोई मरता नहीं।
निलेश, उसका पति, तो उससे भी ज्य़ादा समझदार था। पर समझदार होने का मतलब , भावहीन होना तो नहीं?!
वह उसे बहुत प्यार करता था, पागलों सा, पर उसकी समझदारी ने उसे कभी पागल होने नहीं दिया। और थकहार कर नंदिता ने भी यह स्वीकार कर लिया था। उसकी मृत्यु निलेश को अकेला ज़रूर कर देगी पर वह रुकेगा नहीं।

उसे फ़िक्र थी तो खुद की, खुदा की। इतने अभ्यास और आत्मचिंतन के बाद भी वह खुद और खुदा का अंतर तय नहीं कर पायी थी। उसने इस संसार को त्यागना स्वीकार लिया था, पर फिर संसार में आना और फिर यही सब से गुज़रना उसे स्वीकार नहीं था। उसे अब खुदा से मिलना था। पर वह बहुत दूर था, या फिर उसे ऐसा लगता था।
इश्वर से यही अलगाव उसे फिर चक्रव्यूह में फंसने से डरा रहा था।

"काश! निलेश भी साथ चल सकता! नहीं, नहीं,यह मैं क्या सोच बैठी ! मैं उसका इंतज़ार करुँगी। वह कभी न कभी, कहीं न कहीं मुझे जरुर मिलेगा!"

दिल पे बहुत से बोझ थे,सबसे बड़ा था बदले का। कई रिशतों ने उसे ज़िन्दगी की लड़ाई में बहुत परेशान किया था। बहुतो को तो वह माफ़ कर चुकी थी, पर कई गहरे ज़ख्म छोड़ गए थे।
इश्वर से ज्यादा विश्वास उसे अपने पति पर था। उसे यकीन था की वह मरने के बाद भी उसका ख्याल रखेगा!!
मानो उसकी बात का यकीं दे रहा हो ऐसे निलेश ने उसके सर पर हाथ रखा, "उन्हें अपने कर्मो पर छोड़ दो। तुम आगे बढ़ो।" एक लम्बी आखरी सांस, और उसने आँखे मूंद ली ।
अब कोई ख्याल न था कोई डर नहीं, न खुद न खुदा, बस परम शान्ति !!

परिवार का रोना, देह का जलना, अब उसपर किसी भी बात का कोई असर नहीं हो रहा था। वह उस मकाम पर थी जहाँ सब कुछ था और कुछ भी नहीं !! सारे सवाल अद्भुत शांति में बदल चुके थे !!


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