बिखरते रिश्तें
बिखरते रिश्तें
कभी कभी न जाने मुझे रिश्तों पर भरोसा क्यों नही होता है? जिन रिश्तों को मैंने सींचा था,जिन्हें मैंने पूरी शिद्दत से निभाया था न जाने कैसे वे भरभराकर बिखरते ही चले गए....
अब यही देखो,कल ही पति को कहते सुना,"बेटा, ये नौकरी करने वाली औरतें होती है ना,वे किसी काम की नही होती हैं। उनका न तो घर मे पूरा ध्यान होता है और न ही ऑफिस में ही।"
बेटे के रवैये से उसे और भी ज्यादा अचरज हुआ।क्योंकि बेटे ने अपने पापा की उस बात से कुछ रियेक्ट ही नहीं किया।उसके सिर पर जैसे घड़ों पानी गिर गया क्योंकि वह तो अपनी परवरिश पर बेहद नाज़ किया करती थी।पता नही उसे क्यों लगा था कि बेटा कम से कम उसकी साइड लेगा। उसे लगा कि बेटा बचपन से ही घर के हालातों से वाकिफ था। उसने पापा को कुछ काम करते हुए नहीं देखा था और ना ही घर के खर्चों के लिए उन्हें कभी कोई पैसे देते हुए देखा था। बचपन से आज तक पूरा घर माँ की नौकरी से ही चलता था...फिर भी उसने कुछ नहीं कहा था। मेरे लिए कल तक वे दोनों ही रिश्ते बेहद अज़ीज़ थे।
लेकिन आज.....आज उन रिश्तों में आये खोखलेपन का अहसास हुआ....पति और बेटे से मैं क्या नज़रे मिलाती? उन भरभराकर बिखरते रिश्तों को देख कर मैं खुद से ही नज़रें चुराने लग गयी!
