Jyoti Naresh Bhavnani

Inspirational

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Jyoti Naresh Bhavnani

Inspirational

बिखरते रिश्ते

बिखरते रिश्ते

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पूरा घर शहनाई की आवाज़ से गूंज रहा था। घर में सभी बहुत ही खुश दिखाई दे रहे थे। जानकी देवी की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था। उनके छोटे बेटे भरत की आज शादी जो थी। जानकी देवी के परिवार में उसका बड़ा बेटा कन्हैया, उसके बाद बेटी पिंकी और सबसे छोटा बेटा भरत था। कन्हैया और पिंकी की शादी हो चुकी थी। जानकी देवी के पति की मौत कई वर्ष पहले दिल का दौरा पड़ने की वजह से हुई थी। उस समय उसके तीनों बच्चे अभी पढ़ाई कर रहे थे। जानकी देवी के पति किराए पर कपड़े की दुकान चलाया करते थे, और उसी से उन के घर का खर्चा निकल रहा था। परंतु अचानक से आई उनकी मौत के कारण घर का सारा बोझ उनके बड़े बेटे कन्हैया के कंधों पर आ पड़ा, जो खुद अभी सोलह साल का ही था। उसने अपनी आगे की पढ़ाई छोड़कर अपने पिता का धंधा संभाल लिया और धीरे धीरे उसने मेहनत करके उस किराए के दुकान को खरीद लिया। जानकी देवी ने भी ख़ूब मेहनत की थी अपने बच्चों को बड़ा करने में। भरत भी अब बड़ा हो चुका था और कहीं और नौकरी करने लगा था। उसने दुकान पर बैठने से साफ इंकार कर दिया था। घर के सभी लोग आपस में बहुत खुश थे। कुछ समय पश्चात कन्हैया की शादी हो गई। कन्हैया की पत्नी लाजो एक घरेलू लड़की थी और उसने आते ही पूरे घर की ज़िम्मेदारी संभाल ली थी। हालांकि वह पढ़ी लिखी थी पर घर में कभी किसी ने भी उसे नौकरी करने के लिए नहीं कहा। उसे भी घर संभालना अच्छा लगता था इसलिए उसने कभी नौकरी करने की जिद्द नहीं की। उनकी शादी के तुरंत बाद कन्हैया ने अपनी बहन के हाथ भी पीले करवा दिए और आज बारी थी भरत के घर बसाने की। कन्हैया ने और उसकी मां जानकी देवी ने भरत की शादी में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। चारों ओर खुशी का माहौल था। बड़े ज़ोर से ढोल बज रहे थे और शादी के गीत बज रहे थे। शादी में आए सारे रिश्तेदार खुशी से नाच रहे थे और दूल्हे को चिढ़ा रहे थे। आखिर फेरे भी हो चुके और नई दुल्हन रूपा ने ग्रह प्रवेश भी कर लिया। सारा परिवार रूपा के आने से बहुत खुश था। शादी के कुछ समय तक सब ठीक चल रहा था। कन्हैया के दो बच्चे हो चुके थे और लाजो का समय अक्सर बच्चों के पीछे ही जाने लगा। बच्चे धीरे धीरे बड़े होने लगे और स्कूल जाने लगे। अब तो लाजो का अधिकतर समय बच्चों को संभालने और उनकी पढ़ाई के पीछे जाने लगा। जिस वजह से घर के काम का बोझ रूपा पर बढ़ने लगा। पहले तो रूपा ने इस बारे में किसी से कुछ नहीं कहा पर बाद में उसने इस बात पर आपत्ति उठानी चालू कर दी और उसने भरत से अलग होने को कहा। पर भरत ने अलग होने से साफ इंकार कर दिया। परंतु धीरे धीरे घर का माहौल जब बिगड़ने लगा और आखिर बढ़ते क्लेश को देखते हुए भरत ने अपनी मां और अपने बड़े भाई कन्हैया से इस बारे में बात की। चूंकि घर में किसी के पास भी ज्यादा पैसे नहीं थे इसलिए ये तय किया गया कि घर में ही भरत को पीछे की तरफ एक बेडरूम, हॉल और रसोईघर दिया जाएगा और इतना ही कन्हैया को आगे की तरफ दिया जाएगा। रूपा इस फैसले से बहुत खुश थी। अब तो वह नौकरी भी करने लगी थी। कुछ समय बहुत ही अच्छे से और शांति से गुज़रा परंतु थोड़े समय के बाद रूपा ने फिर अपना रंग दिखाना चालू कर दिया। भरत अपनी मां से बात करता तो वह भी रूपा को अच्छा नहीं लगता था या भरत मां के लिए कभी कुछ लेकर आता या मां को थोड़ी देर के लिए कहीं घुमाने ले जाता तो वह भी रूपा हो पसंद नहीं आता था। थोड़े समय के बाद वह फिर से जिद्द करने लगी कि उसे बिलकुल अलग ही रहना है इसलिए ये मकान बेचकर उसे उसका हिस्सा दिया जाए। जानकी देवी के जीते जी बंटवारे की बातें होने लगीं। पूरा घर हैरान परेशान था कि आखिर पुश्तैनी मकान को बेचा कैसे जाए? जानकी देवी, उनके पति और उनके बड़े बेटे ने जी जान लगाकर जिस मकान को खड़ा किया था, उसी मकान को बेचने की नौबत आ गई। आखिर किसी तरह से जानकी देवी के बड़े बेटे कन्हैया ने पैसों का इंतजाम किया और अपने छोटे भाई भरत को उसका हिस्सा दे दिया। अब तो रूपा बहुत खुश थी। उसको उसकी पसंद की ज़िंदगी जो मिल चुकी थी । न किसी की चिंता न किसी की फिक्र, बस वह और उसका पति। यही तो वह चाहती थी। धीरे धीरे कर के उसने नया मकान भी अपने नाम से करवा दिया और बैंक बैलेंस भी। शुरू शुरू में वह और भरत जानकी देवी से अक्सर मिलने आ जाया करते थे । परंतु यह सिलसिला भी जल्द खत्म हो गया। न रूपा खुद कभी जानकी देवी से मिलने जाती और न ही भरत को ही जाने देती। फ़ोन पर अगर भरत मां से बात करता तो रूपा उस पर भी भड़क उठती। उसने भरत को धमकियां देनी चालू कर दी कि अगर वह मां से मिलने गया तो वह उसे घर से निकाल देगी और उस पर और उसके परिवार के ऊपर उसे सताने का केस दायर करेगी और सब को क़ानून के शिकंजे में फंसा देगी। भरत इन धमकियों से डर जाता क्यों कि रूपा ने उसके पीछे जासूस लगा रखे थे और जैसे ही उसे पता चलता कि वह अपनी मां से मिलने गया है तो उस दिन भरत को खाना भी नसीब नहीं होता था। जानकी देवी इंतजार करती ही रह जाती थी। उसके पास आंसू बहाने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचा था। 

 

इस तरह से काफी समय निकल गया। अब तक भरत और रूपा के दो बेटे हो चुके थे और दोनों ही अब विदेश में नौकरी करते थे। दोनों ही मां के आज्ञाकारी बेटे थे और वे रूपा से बहुत प्यार भी करते थे। रूपा को यह यकीन था कि चाहे कैसी भी परिस्थिति हो लेकिन उसके दोनों बेटे उसी का ही साथ देंगे। अब रूपा को जब भी फुर्सत मिलती वह खाली समय में घंटों तक अपने मायके वालों, रिश्तेदारों से बात करती और अपनी सहेलियों के संग घूमने निकल जाती पर भरत को अपनी मां से मिलने की भी इजाज़त नहीं थी। वह नौकरों की तरह रूपा को और उसकी सहेलियों को अपनी गाड़ी में बिठाकर छोड़ने जाता और लेने आता पर वह घर के झगड़ों के डर से मां से मिलने कभी नहीं जाता था। जानकी देवी बेटे के गम में बीमार सी रहने लगी। एक बार भरत को उसके दोस्त और उसके परिवार के शुभचिंतक एवं समाज सेवक महेश ने ही उसे उसकी मां की बीमारी के बारे में बताया तो भरत ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब उसके दोस्त महेश ने उससे पूछा कि क्या बात है जो मां की बीमारी की बात सुनकर भी वह सुना अनसुना कर रहा है। पर भरत ने तब भी कोई उत्तर नहीं दिया और वह वहां से जाने की कोशिश करने लगा। तब महेश ने उसे रोककर पूछा कि आज तो उसे बताना ही पड़ेगा कि आखिर क्या बात है जो मां की बीमारी की बात सुनकर भी वह मां के पास जाने से कतरा रहा है। महेश ने कहा कि हर बात का समाधान संभव है। हो सकता है वह कुछ मदद कर सके अपने दोस्त की। बहुत पूछने के बाद उसने अपने दोस्त को खुद पर हो रहे ज़ुल्म के बारे में जब महेश को बताया तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गई कि आखिर कोई कानून का इस तरह से भी गलत फायदा उठा सकता है और मां को अपने बेटे से यूं जुदा कर सकता है। उसने भरत के कान में कुछ कहा और वहां से चल दिया।


महेश से मिलने के बाद भरत थोड़ा परेशान सा रहने लगा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर वह क्या करे। मां से मिलने जाए या नहीं। उसकी आंखों के सामने वो दृश्य आने लगे जब उसकी मां बचपन में उसके बीमार होने पर रात रात भर उसको गोद में लेकर, या उसके सिरहाने बैठकर उसके बालों को सहलाया करती थी। दिन भर काम करके थकने के बावजूद भी वह सब के लिए उनकी पसंद का खाना बनाया करती थी और खुद भूखी रहकर भी उनको खिलाया करती थी। मां के एहसान याद कर के भरत की आंखों से झर झर आंसू बहने लगे और उसने एक निश्चय किया। वह सबसे पहले अपनी मां से मिलने गया। मां से उसने ढेरों बातें कीं। ख़ूब रोकर उसने मां से माफी मांगी और यह कह कर वहां से चला गया कि वह कुछ दिन काम से शहर से बाहर जा रहा है। और जहां जा रहा है वहां मोबाइल का नेटवर्क नहीं रहता है इसलिए वह उसकी चिंता न करे। वह जैसे ही वापस आएगा तो खुद ही उससे मिलने आ जाएगा। यह कह कर वह वहां से चला गया। वहां से जाते समय उसने महेश से फोन पर बात की और रेल्वे स्टेशन पहुंच गया। वह कहां जा रहा है यह महेश के अलावा कोई नहीं जानता था। उसने महेश से टिकट ली और गाड़ी में बैठ गया। गार्ड ने हरी झंडी दिखाई और इंजिन ने हार्न बजाया। गाड़ी ने धीरे धीरे चलना शुरू किया और आखिरकार प्लेटफॉर्म भरत की नज़रों से ओझल हो गया।


वहां दूसरी ओर रात तक जब भरत घर नहीं पहुंचा तो रूपा ने भरत से फोन पर बात करने की कोशिश की पर भरत का मोबाइल स्विच ऑफ आ रहा था। उसने उसके सारे दोस्तों से उसके बारे में पूछा पर भरत के बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं था। उसने अपने जासूसों से यह भी जासूसी कर के देख लिया कि कहीं भरत अपनी मां जानकी देवी के पास तो नहीं गया है पर जब उसे पता चला कि भरत वहां भी नहीं है तो उसने चैन की सांस ली। उसने सोचा कि गया होगा कहीं पर ! आखिर जायेगा कहां? वापस तो अपने घर ही आएगा न? ऐसा सोचते सोचते पांच दिन निकल गए पर भरत का कुछ अता पता नहीं था। अब उसे भरत की थोड़ी थोड़ी चिंता सताने लगी। उसने विदेश में रह रहे अपने बेटों को इस बारे में बताया पर दोनों ने कह दिया कि उनकी नई नई नौकरी लगी है इसलिए वे बहुत ही व्यस्त हैं । वे वहां से बैठकर उसकी कोई मदद नहीं कर सकते। उसे खुद ही पापा को ढूंढना होगा। उसने अपनी सहेलियों से जिन से घंटों फोन पर वह बात किया करते थी और जिनके संग घूमने जाती थी उनको भी जब उसने भरत के कहीं चले जाने की बात कही तो उन में से एक ने उत्तर दिया कि उसके बच्चों की परीक्षाएं चालू हैं तो दूसरी ने कहा कि उस का पति ठीक नहीं हैं तो तीसरी ने कहा कि उसके घर पर मेहमान हैं इसलिए वे उस के लिए चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकतीं। तब रूपा की आंखें खुलीं और उसने सोचा कि ये वही सहेलियां थीं जिन के संग अक्सर वह घूमने चली जाया करती थी और जिनके बहकावे में आकर वह अपनी सास जानकी देवी से और भरत से रोज़ रोज़ बेवजह झगड़े किया करती थी। अब वो सारे काम उसको करने पड़ रहे थे जो भरत बिना कोई शिकायत किए करता रहता था बदले में रूपा उसको हरदम सब के आगे बे इज़्ज़त करती रहती थी कि यह तो नवरी बाज़ार है इसको तो कोई काम धंधा ही नहीं है इसलिए सब की मदद करता फिरता है। उसको बहुत ही अकेलापन महसूस होने लगा। पर वह कहती भी किस से। उसका पूरा दिन घर के और बाहर के काम करने में निकल जाता। घर के बिजली बिल, टेलीफोन बिल, प्रॉपर्टी टैक्स, पानी के बिल, राशन इत्यादि सब के भुगतान के लिए उसे ही दौड़ना पड़ रहा था। अब धीरे धीरे कर के उसको भरत पर की गई ज्यादतियों पर अफसोस होने लगा। इस तरह से करीबन एक महीना निकल गया। 


एक दिन जब महेश उसको कहीं रास्ते पर मिला और उसने भरत के बारे में उससे पूछा तो वह फूट फूट कर रोने लगी और उसने सब कुछ सच सच महेश को बता दिया। जब महेश को यह पक्का यकीन हो गया कि वाकई में उसको अपनी करनी पर अफसोस है तब महेश ने उसे बताया कि भरत कहां पर है उसे सब पता है। पर वह उसे बताएगा नहीं । अगर वह चाहती है कि भारत वापस आ जाए तो वह भरत की उससे बात करवा सकता है। रूपा तुरंत तैयार हो गई। महेश ने तुरंत गोपनीय तरीके से एक नंबर लगाया और जब भरत ने फोन उठाया तो महेश ने उसे बताया कि रूपा उससे बात करना चाहती है। यह कहते हुए उसने फोन रूपा को दिया। रूपा ने अपने बर्ताव के लिए भरत से माफी मांगी और उसे वापस घर आने के लिए कहा। भारत ने कहा कि वह जहां है वहां पर वह खुश है। वहां न उस पर कोई हुक्म चलाने वाला है न कोई उसका अपमान करने वाला। वह अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़िंदगी जी रहा है। तब रूपा ने उसे विश्वास दिलाया कि अब वह कभी उसका अपमान नहीं करेगी और न ही उस पर अपना हुक्म चलाएगी। तब भरत ने कहा कि वह वहां आकर क्या करेगा जब वह अपनी मां से भी नहीं मिल सकता। इसपर रूपा ने कहा कि वह अब कभी भी उसे मां से मिलने से नहीं रोकेगी। इस पर भरत ने कहा, " तो ठीक है। मैं कल ही वापस आ जाता हूं। पर आते ही तुम्हें मेरे साथ मेरी मां से मिलने चलना होगा और उससे माफी मांगनी होगी।" रूपा ने कहा कि उसे मंज़ूर है। 


दूसरे दिन भरत जैसे ही अपने घर वापस पहुंचा तो उसके घर पर महेश, रूपा की सहेलियां और उन के पति भी मौजूद थे। घर में कदम रखते ही भरत ने महेश से पूछा कि आखिर यह सब संभव कैसे हुआ? जो काम वह इतने सालों में नहीं कर पाया वह इतनी जल्दी कैसे हो गया? रूपा में यह परिवर्तन आखिर आया कैसे? तब महेश ने कहा कि वह तो एक समाज सुधारक का काम करता है। टूटते घरों और बिखरते रिश्तों को बचाना ही उसका काम है। उसने भरत के दोनों बेटों को फोन कर के समझा दिया था कि यह सब एक नाटक है। वे भरत की चिंता न करें और रूपा को अकेले निर्णय लेने के लिए छोड़ दें। उसने रूपा की तीनों सहेलियों के पतियों को बताया कि किस तरह से वे रूपा को बिगाड़ रहीं हैं और उसके घर को तोड़ने की कोशिश कर रही हैं। तीनों पतियों ने मिलकर अपनी अपनी पत्नियों को ख़ूब ही झाड़ा और रूपा से किनारा करने की चेतावनी दे दी। जिस वजह से रूपा बिलकुल अकेली पड़ गई और उसको उसकी गलतियों का एहसास हुआ। रूपा की तीनों सहेलियों और उनके पतियों ने भरत से माफी मांगी। तब भरत ने कहा, " यह माफी माफी का चक्कर छोड़ो पहले मुझे मेरी मां से मिलना है, वह मेरा इंतजार कर रही होगी। मैं पहले उससे मिलने जाऊंगा।" यह कह कर वह गाड़ी की चाबी उठाकर जैसे ही बाहर जाने लगा तब दूसरे कमरे से जानकी देवी बाहर निकली और कहने लगीं, "अरे बेटा! कहां जा रहे हो? मैं तो यहां पर हूं। इतना सुनते ही भरत खुशी और आश्चर्य के मारे वापस मुड़ा और उसने अपनी मां को गले से लगा लिया। मां ने भी उसको कस कर अपने आगोश में ऐसे भर लिया जैसे उसके बेटे को फिर से न कोई उससे छीनकर वापस ले जाए। इतने में तो अंदर से भरत का बड़ा भाई कन्हैया और बहन पिंकी भी अपने अपने परिवारों सहित बाहर निकले और उन्होंने भी भरत को गले से लगा लिया। इतने में रूपा वहां आई और बोली, " अब तो खुश हो न अपने परिवार को पाकर। इन्हें मैं खुद जाकर लेकर आई हूं, यही तुम चाहते थे न! अब सिर्फ इतना बता दो कि इतने दिन तुम आखिर थे कहां पर? और तुम्हारा दूसरा नंबर आखिर कौन सा है जो मुझे भी पता नहीं है!" इस पर भरत ने धीरे से कहा, " यह तो एक सीक्रेट है, जो अगर मैंने बता दिया तो दूसरी बार झगड़ा होने पर वहां पर भी मुझे शांति से रहने नहीं दोगी और आ जाओगी मेरी शांति भंग करने! रही दूसरे फोन नंबर की बात तो वह मेरा दूसरा सीक्रेट है जो सिर्फ मेरे सच्चे दोस्त महेश के अलावा किसी को भी पता नहीं है। यहां तक कि मेरी मां को भी नहीं।" इतना सुनते ही सबके ठहाके घर के कोने कोने में गूंजने लगे। धीरे धीरे कर के रूपा की सहेलियों के पति अपनी पत्नियों को साथ लेकर वहां से खिसकने लगे। उनका काम जो पूरा हो चुका था दो परिवारों को आपस में मिलाने का। महेश भी वहां से चल पड़ा एक और बिखरे परिवार को इकट्ठा करने की तलाश में।



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