भूत का ज़ुनून-15
भूत का ज़ुनून-15
अब तो भटनागर जी को पक्का यकीन हो गया कि ये कोई न कोई भूत प्रेत या आत्मा ही है जो कभी उनकी पत्नी पर, तो कभी उनके बेटे पर असर दिखा रहा है।
पर उनकी समझ में ये नहीं आया कि ये जो भी है आख़िर उनसे चाहता क्या है।
इसने अब तक उन्हें कोई प्रत्यक्ष नुक़सान तो नहीं पहुंचाया है पर उन्हें मानसिक कलेश तो दिया ही है।
वो क्या करें, किससे पूछें इसका उपाय।
एक बार वो स्वामी जी के पास भी जाकर देख चुके थे मगर कोई लाभ नहीं हुआ। उल्टे उस पाखंडी स्वामी ने उनका खर्चा और करवा दिया। देखो कैसे उन्हें एक ठग की ज्वैलरी शॉप पर भेज दिया। ज़रूर उसे वहां से मोटा कमीशन मिला होगा।
उन्हें कुछ क्रोध अपने सहकर्मी विलास जी पर भी आया जो उन्हें ऐसे स्वामीजी के चंगुल में फंसाने के लिए ले गए।
एक बार उन्होंने सोचा, ख़ुद बेटे से ही पूछ कर देखें कि उसे वहां बैठे - बैठे ये कैसे पता चला कि भटनागर जी, यानी उसके पापा सारी रात जागे हैं।
लेकिन उन्हें लगा कि अगर सचमुच ये भूत- प्रेत का ही कोई चक्कर होगा तो बेटा उनके सवाल से घबरा जाएगा और वहां अकेले में और भी परेशान होगा। यही सोच कर वो बेटे से कुछ पूछने से बचते रहे।
लेकिन वो कुछ बेचैन से रहे।
उनका ये संदेह भी बना रहा कि रबड़ी की दुकान के पास रहने वाली भिखारिन से भी इस गफलत का कोई न कोई संबंध ज़रूर है, क्योंकि पहली बार सपने में काल्पनिक रबड़ी की दुकान पर उन्हें यही बुढ़िया दिखी थी।
वह बार- बार किसी क्लू के मिलने की उम्मीद में वहां जाते थे लेकिन हर बार वहां से रबड़ी खाकर ही लौट आते। उन्हें भिखारिन से घटना का कोई कनेक्शन अब तक समझ में नहीं आया था।
अब मामला उनकी पत्नी से भी आगे फ़ैल कर बेटे तक पहुंच गया था तो वो कुछ और भी ज़्यादा चिंतित हो उठे थे।
ऐसा नहीं था कि उन्हें पत्नी की चिंता नहीं थी। पर पत्नी तो यहां उनके साथ ही रहती थीं इसलिए वो उन्हें सुरक्षित मानते थे जबकि बेटा नज़र से दूर हॉस्टल में रहता था। बेटे पर पढ़ाई का भी काफ़ी बोझ था।
काफ़ी सोच विचार करने के बाद आख़िर उन्होंने यही प्लान बनाया कि ऑफिस से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर वो और उनकी श्रीमती जी बेटे के पास ही चलें तथा मामले की तह तक पहुंच कर इसे सुलझा कर ही आएं।
जब बेटे का एडमिशन करवाने वो गए थे तब उसके हॉस्टल के नज़दीक ही एक अच्छे से होटल में वो दो दिन ठहरे भी थे।
अब उन्हें लगा कि उसी होटल में कमरा लेकर ठहरना उनकी पत्नी को भी भाएगा। वैसे भी वो तो बेटे से मिलने को तरसती ही रहती थीं।
आज ऑफिस में अपने बॉस का मूड भांप कर उन्होंने छुट्टी की बात छेड़ दी।
कहते हैं कि अगर आदमी किसी एक ताक़त से परेशान हो तो कोई न कोई दूसरी ताक़त उसकी मदद करने में देर नहीं लगाती।
बॉस ने छुट्टी के लिए तुरंत हां भर दी।
भटनागर जी बॉस के केबिन से ऐसे हल्के- फुल्के होकर निकले मानो उनका आधा कष्ट तो दूर ही हो गया हो।
उनके पांव अब जल्दी से घर पहुंच कर पत्नी को ये खुशखबरी सुनाने के लिए मचलने लगे।
रास्ते में उन्होंने गाड़ी रोक कर रबड़ी भी तुलवाई।
रबड़ी की दुकान से कुछ दूरी पर एक फल के ठेले के पास खड़ी वो भिखारिन केला खा रही थी जो ज़्यादा पक कर काला पड़ जाने के कारण फल वाले ने उसे पकड़ा दिया था।
भटनागर जी ने आज उसके पास से गुजरते हुए कार रोक कर ख़ुद उसे दो रुपए का सिक्का दिया। उसने सिक्का लापरवाही से अपने वस्त्रों की किसी ख़ुफ़िया जेब में डाल लिया और कुछ दूर के ट्रैफिक सिग्नल पर गाड़ियों का काफ़िला रुका देख कर उस तरफ़ बढ़ चली।
भटनागर जी पहले ही ये क्रॉसिंग पार कर चुके थे।
घर पहुंचते ही उन्होंने पत्नी को छुट्टी लेने की ख़ुशखबरी देने के लिए माहौल बनाया ही था कि पत्नी भीतर से एक लिफ़ाफ़ा हाथ में उठाए हुए सामने आ खड़ी हुईं।
बोलीं- लो जी, बेटे के कॉलेज से निमंत्रण आया है। कोई फंक्शन है वहां! चलना होगा।
( क्रमशः)