भाई साहब

भाई साहब

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हमारे भाई साहब यानि दादा, हम दो बहनों से बडे पर दो बहनों से छोटे बहुत ही अजीज थे। हमने दादा को पढते-लिखते या हम बहनों को समझाते या गुनगुनाते ही देखा था।


हर बात में आगे, पर जीवन में शायद पीछे रहना ही विधाता को मंजूर था। माँ के तो कलेजे के टुकडे ही थे। हर समय माँ के चारो तरफ ही उनका जीवन बीता। पर समय के साथ कोई कैसे बदलता है यह हमने दादा को देखकर ही सीखा।


अचानक से पिताजी का चले जाना और माँ का बडी बहु से अपमानित होना दादा पर कोई असर नहीं करता था। हमको आज भी वह दिन याद है, जब माँ सूखे चावल खा रही थी और वह भी नमक से भी भाई पर कोई असर नहीं!


ऊपर से हमसे यह कहना कि, हमारी बिवी तो इतना करती है तो बुरी है तो बुरी ही सही! माँ को अपने पास ले आये और वहीं हमने किया जो हमको करना था। माँ को आखिरी साँस तक बेटे का इंतजार, पर शायद विधाता को उनको यह सुख भी देना मंजूर नहीं था, नहीं दिया!


माँ तो नहीं रही, पर भाईसाहब खाट पर लेटकर अपनी मौत का इंतजार कर रहे है। शायद यह उनकी करनी का ही दंड है जो भुगत रहे है, पर जो हमसे जो संबंध थे वह भी अब नहीं है।


माँ नहीं तो कुछ नहीं रहा। ऐसे है भाईसाहब, हमारे जीवन का एक किरदार। कल किसी नये किरदार पर बातचीत होगी आप सबकी!


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