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Anupama Thakur

Abstract

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Anupama Thakur

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बेरवाली

बेरवाली

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सर्दियों के दिन थे। बाजार में अमरूद पपीता, गन्ना तरह- तरह के फल आए हुए थे। चाहे कितनी भी सर्दी खांसी का डर हो, इन मौसमी फलों को खाने का मोह नहीं छूटता। संध्या समय जब मैं घर में झाड़ू लगा रही थी, मैंने बेर वाली की आवाज सुनी। वह जोर से आवाज लगा रही थी, "बेर ले लो बेर, मीठे -मीठे बेर ले लो।" मेरा भी मन हुआ बेर खाने का। 

बाहर जाकर मैंने उससे पूछा- "कैसे दिए?" उसने कहा, "15 रुपये के पावसेर । " मैंने कहा - "पर बाजार में 10 रुपये के पावसेर है।"  वह बोली, "नहीं बाई, इतना बोझ उठाकर सिर पर लाना होता है। मुझे नहीं परतल पड़ेगा।" मैंने सोचा सही है। इतना बोझ

इसे उठाना पड़ता है। 

मैंने टोकरा नीचे रखने में उसकी मदद की। टोकरा सचमुच बहुत भारी था । थोड़े कच्चे -पक्के बेर चुनकर मैंने उसे 20 रुपए दिए । उसने कमर में छोटी सी थैली निकालकर टटोलते हुए कहा, "5 रुपये छुट्टे नहीं है।" मेरे मन में आया देखो, कैसे झूठ बोल रही है । अपने विचार को मैने प्रकट नहीं होने दिया । मैंने कहा, "ठीक है इस गली से लौटते समय दे देना।"  

उसने कहा, "ठीक है।" मैने फिर टोकरी सिर पर रखने में उसकी मदद की और घर में लौट आई । सोचा यह क्या ला कर देगी 5 रूपए ? जाने दो, छोड़ दो। मैं अपने काम में व्यस्त हो गई। 

1 घंटे बाद पड़ोस की राधिका ने दरवाज़ा बजाते हुए कहा- "आँटी वह बेर वाली आपको बुला रही है।"  मैं बाहर आई तो उसने मेरी तरफ 5 रूपए का सिक्का बढ़ाते हुए कहा, "आपका घर ही समझ में नहीं आ रहा था, यहाँ सब घर एक जैसे ही हैं। आखिर में इस लड़की को पूछा तो इसने बताया मैंने चुपचाप वह सिक्का लिया।  मैं अपनी सोच पर शर्मिंदा और उसकी ईमानदारी पर स्तब्ध थी।

कठिन परिस्थितियों से जूझने के बाद भी कुछ लोगों का स्वाभिमान डगमग आता नहीं है, हमें उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।


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