Anupama Thakur

Inspirational

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Anupama Thakur

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मुक्ति

मुक्ति

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महिलाओं का जीवन हमेशा त्‍याग और संघर्ष का होता है। चाहे वह त्‍याग एक बेटी, बहन, पत्नी या मां के रूप में ही क्‍यों न हो। हर समय काल में उनका जीवन प्रेरणादायक होता है। इस संदर्भ में सरिता का चरित्र सर्वोपरि होगा।

    हमेशा खामोश एवं बहुत ही कम बोलने वाली सरिता को देख सभी को यही लगता था कि उसे बहुत ही अभिमान है। औरों की तरह ही मैं भी यही समझ बैठी थी। इसलिए मैंने भी कभी यह जानने का प्रयत्न नहीं किया कि वह इतनी चुप क्यों रहती है। रोजाना की तरह हर कोई अपने काम में व्यस्त अपने कक्ष में बैठे कार्य कर रहे थे। मैं भी अपने काम में व्यस्त थी कि अचानक सरिता आ गई। नित्य प्रति की भांति बिल्कुल साधारण वेशभूषा पहने, बाल थोड़े से बिखरे हुए , चेहरे पर एक छोटी सी बिंदिया के अलावा और कुछ भी साज-श्रृंगार नहीं, कान में कुछ न पहनने के कारण कान के छिद्र स्पष्ट नजर आ रहे थे, गला भी बिल्कुल खाली और सुना नजर आ रहा था, कद में छोटी सी परंतु सुडौल देह वाली सरिता

जाने क्यों बहुत ही साधारण ढंग से जीवन जीती थी। मैंने उसे स्वयं से कभी कोई मजाक करते एवं ठहाके

मारकर हँसते हुए नहीं देखा। आज जब वह स्वयं से ही मेरी कक्ष में आकर बैठ गई तो मैं आश्चर्यचकित थी। मैंने उससे कहा, "अरे ! सरिता आओ बैठो ना।" उसके चेहरे पर थोड़ी हिचकिचाहट एवं असहजता के भाव दिखाई दे रहे थे। वह स्वयं से कुर्सी लेकर बैठ गई। कुछ देर खामोश रहकर उसने कहा , " मैम, मैंने अपने पति से डिवोर्स लिया है।"  मेरे चेहरे की दोनों भौहें तन गई। समझ में नहीं आ रहा था इतने पढ़े-लिखे लेक्चरर पति को सरिता ने क्यों छोड़ा? 

अपने आप को संयमित कर मैंने पूछा "क्यों?" 

सरिता की आंखें अचानक तरल हो गई। इसके पहले वह कुछ कहे मैंने पूछा, "कितने वर्ष हो गए थे शादी को?" उसने एक ही शब्द में उत्तर दिया, "ग्यारह" 

मैं फिर से अवाक रह गई और अंदर ही अंदर स्वयं को भी असुरक्षित महसूस करने लगी। मन में यह कुविचार आने लगा कि 11 वर्ष के पश्चात भी रिश्ते टूट सकते हैं। एक दो क्षण हम दोनों खामोश थे। मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हुई थी, मैं हजारों प्रश्नों की मुद्रा में उसे निहारे जा रही थी। चुप्पी तोड़ते हुए मैंने पूछा, "जब तू गत वर्ष सीढ़ियों से गिर गई थी तो मैं तुमसे मिलने तुम्हारे घर आई थी,  उस समय मुझे तुम्हारे रिश्ते बहुत अच्छे नजर आए, कितनी अच्छी तरह से वह तुम्हारा ख्याल रख रहा था।" सरिता के चेहरे पर आंसू लुढ़क आया था और आँखें भी पुरानी यादें समेटे लाल नजर आ रही थी। 

अब वह बिल्कुल शांत, स्थिर एवं सुलझी हुई स्त्री नजर आ रही थी। उसने एक ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा, "ऊपर से सब कुछ सामान्य था पर अंदर ही अंदर जैसे सब कुछ टूट रहा था। कहने के लिए सब कुछ था, दोनों की अच्छी नौकरी, पैसा, सब कुछ था पर आपसी प्रेम और आत्मीयता धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही थी। शायद हम दोनों एक दूसरे की उम्मीदों पर खरा नहीं उत्तर पा रहे थे। सब को बांधे रखने वाली डोर होती है, उनकी संतान, हम दोनों के रिश्ते में तो वह डोर भी नहीं थी। मैं अवाक सी सुन रही थी और शायद उन कड़ियों को जोड़ने की कोशिश कर रही थी , जहां पर हम सब ने सरिता की छवि को एक घमंडी महिला की उपाधि दे दी थी। ऊपर से सामान्य दिखने वाली इस 34 -35 वर्षीय प्रौढ़ा के जीवन में कौन सा तूफान हिलोरे ले रहा था, यह जानने का प्रयत्न हम में से किसी ने नहीं किया था । उसकी आंखें अविरल अश्रु बहाकर गालों को भिगो रही थी। जिसकी उसे कतई चिंता न थी, आज जैसे वह सब कुछ कह कर हल्का करना चाह रही थी । उसने कहा, "कहने को तो वे लेक्चरर थे पर प्राइवेट संस्था में होने के कारण उन्हें कभी समय पर तनख्वाह नहीं मिलती थी और ना मैं उन्हें कभी पैसों के संबंध में पूछती थी। उन्होंने कभी भी एक पत्नी समझकर मेरे हाथ में तनख्वाह लाकर नहीं दी । हसरत तो मुझे भी बहुत थी संतान की, सारे टेस्ट करवाएं, दोनों में कहीं कोई खोट नहीं थी, फिर भी संतान नहीं हो रही थी।  शायद हम दोनों के शरीर मिल रहे थे,  कभी हृदय का समागम हुआ ही नहीं,  या पता नहीं शायद वे मुझ से संतुष्ट ही नहीं थे।"  मैंने उसे बीच में ही टोकते हुए पूछा, "क्या तुम दोनों के बीच काफी झगड़े होते थे?" 

उसने कहा, "नहीं, ऐसा भी नहीं था, वे हमेशा बहुत मैच्योरड व्यवहार करते थे। बहुत कम बोलते थे। शांत रहते थे। इसीलिए झगड़े का तो सवाल ही नहीं था।"   मैं अब भी असमंजस में थी । अभी तक तलाक का कारण मेरी समझ के परे था।  मैंने जिज्ञासावश पूछा, " फिर तलाक का कारण क्या था ?"  उसने कहा, "जीवन में निस्संतान का कारण पता ना होने पर भी बांझ होने का लांछन मैंने सह लिया पर मेरे साथ किए गए अविश्वास को मैं सहन न कर सकी।" 

सरिता की सारी बातें मेरे सिर के ऊपर से जा रही थी। मैंने विस्मय से पूछा, "कैसा अविश्वास!"  उसने कहा, "चार -पांच वर्ष पूर्व मेरे पति अक्सर पी एच डी के काम के लिए सोलापुर जाते थे। कभी कभार उन्हें 1 से 2 दिन लौटने में लग जाते थे। ऐसे में मैं घर में अकेली ही रहती थी। तभी से मेरे अकेलेपन की शुरुआत हो चुकी थी। एक दिन जब वे प्रातः सोलापुर से लौटे और कॉलेज जाने के लिए बाथरूम में स्नान करने लगे तब उनके मोबाइल के मैसेज नोटिफिकेशन की आवाज आई। उत्सुकता वश मैंने मेल खोलकर संदेश पढ़ना प्रारंभ किया, तो मेरे पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। वह संदेश किसी स्त्री का था और इस प्रकार लिखा गया था जैसे कोई पत्नी अपने पति को लिखती हो। मैं व्याकुल हो गई, मुझसे रहा नहीं गया। जैसे ही वे बाथरूम से बाहर आए मैंने उन्हें संदेश बताते हुए पूछा, "यह सब क्या है?" उन्होंने तुरंत मेरे हाथ से मोबाइल खींचा और सारे संदेश हटा दिए। बस यही से मेरे अलगाव की यात्रा प्रारंभ हुई। 

मैंने पूछा, "क्या तुम्हारे पति के उस स्त्री के साथ अनैतिक संबंध थे ?" सरिता ने तपाक से कहा, "नहीं, वे वैसे इंसान नहीं थे, शारीरिक नहीं पर मानसिक संबंध अवश्य थे। पर मानसिक भी क्यों है? इसका तो अर्थ यही हुआ ना कि जीवन में कहीं न कहीं वे अधूरे थे और मैं उनका वह मानसिक सहारा न बन सकी। मैं उनकी सच्ची संगिनी नहीं बन सकी। यह बात मेरे दिल को अंदर तक कुरेद ने लगी उसके बाद मेरे पति ने मुझसे माफी भी मांगी और कई बार विश्वास दिलाने की कोशिश की कि अब उनका उस स्त्री से कोई संबंध नहीं। पर टूटा हुआ विश्वास भी कभी जुड़ सकता है क्या? वैसे भी मैंने उन्हें मुक्ति दे दी।

मैं हैरान थी मैंने कहा, " मुक्ति!"

सरिता ने कहा, "हां, मेरे पति अपने माता -पिता के अकेले संतान थे, अगर मेरे साथ रहते तो पता नहीं उन्हें संतान होती भी या नहीं। कम से कम अब वे दूसरी शादी कर अपने मां-बाप को सुख और वारिस दे पाएंगे।

मैंने क्रोध से कहा, पर उनके निःसंतान होने के लिए तुम जिम्मेदार नहीं हो तुम्हारी भी तो सभी रिपोर्ट्स सामान्य है।

सरिता ने कहा, "जो भी हो, हमारे समाज में अगर संतान ना हो रही हो तो स्त्री को ही दोषी माना जाता है, फिर चाहे इसमें पुरुष का ही दोष क्यों ना हो। मैं यह मानसिकता तो नहीं बदल सकती। इसीलिए बेहतर है मैंने इस रिश्ते से अपने पति को ही मुक्त कर दिया।

मैंने पूछा, "अब तुम्हारा क्या ?" सरिता ने कोई उत्तर नहीं दिया। कुछ देर खामोश रह कर, रूंधे गले से बोली "अपने पैरों पर खड़ी हूं, अपना ध्यान खुद रख सकती हूँ, और आगे जो ईश्वर कराएं।"  उसकी पीड़ा स्पष्ट थी। यह एक अनोखा प्रेम था जो हम जैसे सामान्य की सोच के परे था।

सरिता की सोच समर्पण एवं त्याग से मैं अचंभित थी। मुझे वह सर्वश्रेष्ठ महिलाओं से कम न लगी जो

आंखों में प्रिय की मूर्ति बसाकर सभी मोह-माया को त्याग कर अपना जीवन एक योगी के जीवन से भी ज्यादा कठिन और कष्टदायक जी रही है। अपनी आकांक्षाओं को मिटाकर धैर्यपूर्वक एक योगी तरह पति वियोग की अग्नि में अपने को तपा कर कुंदन बना रही है।

सरिता का त्‍याग वास्‍तव में किसी बलिदान से कम नहीं है। सरिता का त्‍याग समाज को बंधन का नहीं बल्कि मुक्ति का संदेश देता है।


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