संतुष्टि
संतुष्टि
संध्या समय में अपनी बेटी को ट्यूशन छोड़ कर लौटते समय मुझे अचानक से याद आया कि मेरे चश्मे की डंडी निकल गई है, सामने ही चौक पर चश्मे की दुकान थी, मैंने गाड़ी स्टैंड पर लगाई और पर्स से चश्मा निकालने लगी, चश्मा तो मेरे हाथ जल्दी ही लग गया परंतु उसकी डंडी हमेशा की तरह पर्स के अन्य सामानों में कहीं खो गई थी। दो मिनट पर्स का सामान उथल-पुथल करने पर मन में विचार आया कहीं डंडी घर पर ही तो नहीं भूल गई, फिर लगा नहीं डंडी तो मैंने खुद अपने हाथ से चश्मे के साथ ही रखी थी। मस्तिष्क में यह द्वंद चल ही रहा था कि डंडी हाथ लग गई। दुकान पर एक अधेड़ सा व्यक्ति चश्मा पहने खड़ा था । दुकान पर बिल्कुल शांति थी । मैंने उसे चश्मा बताते हुए कहा -"इस की डंडी निकल गई है, क्या आप बैठा कर देंगे ?" उस व्यक्ति ने बिना कुछ कहे मेरे हाथ से चश्मा लिया और मुआयना करने लगा । दुकान पर बिल्कुल शांति थी, ऐसा लग रहा था जैसे दुकान में ज्यादा ग्राहक आते नहीं है। मैं दुकान में रखे चश्मे और गोगल्स को निहारने लगी । फिर उस व्यक्ति की ओर देखा, उसने डंडी के अंदर से बहुत ही बारीक स्प्रिंग निकाली और फिर से सही ढंग से रखकर उसे जोड़ने लगा। मेरे मन में आया कितना बारीक काम होता है यह। बारीक बहुत ही बारीक स्प्रिंग जिसे घुमा कर वह बार-बार जांचने लगा फिर दोनों डंडियों को उसने कस कर बैठा दिया और मुझे दिया, मैंने लगा कर देखा तो अच्छी से बैठ रहा था, मैंने पूछा कितने रुपए हुए ?वह दो क्षण मौन रहा। मैं मन ही मन में सोच रही थी, यह तो अब अच्छा मुंह फाडेगा और कम कम से कम ₹50 तो जरुर लेगा परंतु उसने- ""कहा कुछ भी नहीं।"" कुछ नहीं ! मैं आश्चर्य चकित रह गई । दस मिनट परिश्रम करने के बाद उससे इस उत्तर की मुझे अपेक्षा नहीं थी । मैंने कहा अपना जो भी मेहनताना है मुझे बताइए । उसने कहा, " इतने छोटे से काम के क्या पैसे लेना?" मुझे अच्छा नहीं लग रहा था मैंने जबरदस्ती उसके हाथ में ₹20 का नोट थमा दिया और निकल पड़ी। मैं बहुत देर तक सोचती रही सचमुच कुछ लोग अभावों में भी संतुष्टि और संपन्नता का जीवन जीते हैं।