मौन
मौन
’’ओहो, घटस्थापना के लिए केवल चार दिन शेष है और तुम्हारा नंबर फिर से आ गया।’’ शालिनी ने झल्लाते हुए कहा।
"हां, मम्मी जी, यह सब मेरे हाथ में थोड़ी ही ना है," मीना शांत रहकर बोली।
"देखो, तुम दो¨ दिन के लिए अपने मामा के घर जा कर रहो, यहां वहां बार-बार हाथ लगेगा। "शालिनी का स्वर अभी भी रोबीला था।
मम्मी जी, पर उनके घर की पवित्रता का क्या? और वो सामने ही रहते हैं इसलिए क्या बार-बार उनको तंग करना ठीक है? मीना बिल्कुल बेबस होकर बोलने लगी। क्यों! उन्होंने कुछ कहा? शालिनी ने क्रोध पूर्ण नेत्रों से देखते हुए पूछा।
’’कहा कुछ नहीं पर मुझे यह सब अच्छा नहीं लग रहा है।’’ मीना रुआंसी हो गई।
"देखो! तुम्हारी मर्जी यहां बैठकर छुआछूत करो या फिर ....".(तभी फोन की घंटी बजती है)
"हाँ! हेलो स्मिता कैसी हो बेटा?"
"मैं ठीक हूं मां, मैं आज रात औरंगाबाद आ रही हूं।"
"अचानक कैसे?"
"औरंगाबाद में मेरा एक सेमिनार है माँ, सो आज रात ही मैं आ रही हूं।"
’’अरे वाह। भैया आ जाएगा तुम्हें लेने के लिए’’ शालिनी की खुशियों का कोई ठिकाना नहीं रहा।
(रात 11-00 बजे) भाभी कहां है ? स्मिता ने आश्चर्य से पूछा
’’सामने अपने मामा जी के घर गई है।’’
"क्यों!"
’’बाहर हो गई है ना।’’
मां, तुम भी ना! अभी भी इन सब बातों में विश्वास करती हो।
’’हां, हां, जमाना बदल गया होगा पर भगवान थोड़ी ही न बदले।’’
’’माँ मैं निकलती हूं सेमिनार से चार बजे तक लौट आऊंगी।’’
’’ठीक है,"
"शाम चार बजे.."
’’माँ एक गड़बड़ हो गई।’’
’’क्या हुआ?’’
’’मेरा भी नंबर आ गया।’’
"ओ माता! यह सब क्या हो रहा है?"
"जा, अंदर के कमरे में जाकर नहा ले।"
"क्यों मां? मुझे कहीं नहीं भेजोगी?"