बेखबर सपने
बेखबर सपने
वीरेशा ने अभी - अभी काॅलेज में दाखिला लिया था अपने मामा - मामी के शहर में आकर। यहाँ का माहौल उसे अभी अच्छा नहीं लग रहा था। कुछ खामोशी थी आस - पास पसरी हुई थी। घर भी बहुत कम और दूर - दूर थे। ना किसी से ज्यादा जान पहचान ना किसी के घर बिना बुलाए चीनी और अचार के लिए बेधड़क जाना। वीरेशा को लगा ये जगह कितनी पराई और उदास सी लगती है। वह वापस भी जाना चाहती थी लेकिन, पढ़ाई आगे करने के लिए उसे यहाँ रहना ही होगा। वरना वह स्नातक की पढ़ाई अपने छोटे से शहर में नहीं कर पाएगी। यही सब समझाकर वीरेशा को उसके माता - पिता और मामा - मामी ने रहने को राजी किया था।
अब काॅलेज आने - जाने के अलावा वीरेशा कहीं जाती है तो दो मंजिले घर की छत पर । उसने वहाँ बागवानी करना शुरू किया। हर तरह के पौधे वह करिने से सजाकर रखने लगी और जल्द ही छत फूलों से भरने लगा। अब वीरेशा यहाँ खेलती खिलखिलाती फूलों और पत्तों के साथ -साथ।
एक दिन ऐसे ही वीरेशा ढलते शाम की लालिमा में नाचती - कूदती वह मगन सी छत पर थी। तभी उसे लगा दूर से उसे कोई देख रहा है एकटकी लगाए।
मगर कम होती रौशनी में वह चेहरा धूंधला पड़ने लगा था कुछ - कुछ। लेकिन, फिर भी वीरेशा उसे ठीक से देखने की कोशिश कर रही थी जैसे वह उस पहचान को आगे के लिए सहेज लेना चाहती हो। पहली बार कुछ इस तरह का अहसास उसे और उसके मन को बांध रहे थे।
शाम ढल गई और वह परछाईं सी गायब हो गई। वीरेशा अब भी वहीं खड़ी थी। लगा वह अक्स अबतक खड़ा उसे निहार रहा है। मामी की आवाज़ सुनकर वीरेशा की तन्द्रा टूटी और वह पीछे मुड़कर देखती हुई नीचे उतर गई।
थोड़ा मन आज प्रफुल्लित सा भी था और संशय में भी था वीरेशा का वो कल दिखाई देगा भी या नहीं। बेकाबू कहें या मतवाली सी धड़कने हो रही थीं आज। नींद भी आती - जाती रही पूरी रात। अगली सुबह वीरेशा काॅलेज जाने से पहले एक बार छत पर गई इस उम्मीद में कि, वह नज़रें फिर से नज़र के सामने आ जाए। वह झिलमिलाता हुआ अक्स स्पष्ट हो जाए। लेकिन, वह दूर - दूर तक नज़र नहीं आया। वह लागातर देखने का प्रयास करती रही और फिर निराश होकर काॅलेज के लिए देर ना हो जाए इसलिए नीचे उतर जाती है।
काॅलेज में भी वीरेशा का मन रह - रहकर उसकी आंखों को याद कर रही थी। वहीं मन उसे समझा रहा था की वह एक भ्रम या सपने जैसा था जो अब टूट गया है। खुद को सांत्वना देने के बाद वह पढ़ाई करने लगी। छोटे से शहर में पली - बढ़ी वीरेशा काॅलेज के और लड़के - लड़कियों की तरह घुलने - मिलने और हंसी - ठहाके लगाने से कतराती थी। वह हरगिज़ नहीं चाहती थी की, बेवजह यहाँ - वहाँ घूमने और समय बर्बाद करने की खबरें उसके अपनों तक पहुंचे। फिर, आखिर उस अजनबी की उस एक नज़र में क्या था जिसे वीरेशा अपनी ज़हन से निकालना चाहते हुए भी याद कर रही है।
घर लौटते ही वीरेशा का छत पर जाने का हुआ। लेकिन, वह नहीं दिखा तो फिर निराशा बढ़ जाएगी सोचकर वह नहीं गई छत पर। धीरे - धीरे शाम की रंगत आसमान का रंग ढकने लगा और डूबते सूर्य के रंग में रंगने लगा। पूरी तरह अंधेरा होने पर छत पर गई तो शायद मन आखिरी आश भी गंवा देगा। ऐसा विचार आते ही वीरेशा छत की तरफ तेज कदमों से भागी। सीढ़ियों पर उसका दुप्पटा गिर गया जिसका उसे होश ही नहीं रहा।
छत पर कदम रखते ही उसकी बढ़ी हुई धड़कने और तेज हो गई जब सामने वही आंखें उसके दीदार के इंतज़ार में बिछी हुई दूर से भी दिखाई पड़ी। यूं बेपरवाह सी भागकर आई वीरेशा को देखकर वह भी मुस्कुरा उठा। उसकी मुस्कान ने वीरेशा का दिल आखिर छीन ही लिया। अब तो प्रेम पाश में आए इन नए प्रेमी युगल की दिनचर्या ही नहीं शाम और रातों के अहसास भी नए रंगों में रंगकर उड़ान भरने लगे थे एक - दूसरे को लेकर। कितने मधुर, कितने सुहाने और मनमोहक थे ये तैरते ख़्याल हर पल हवाओं की तरह।
गुजरते समय के साथ वीरेशा का मन उसे और करीब से देखने के लिए, उसकी आवाज़ और हंसी सुनने के लिए मचलने लगे। मगर , सामने से ऐसा कोई इशारा उसे नहीं मिला था इसलिए वह थोड़ी परेशान सी रहने लगी। वीरेशा के मामा मामी के मकान के बाद एक मकान था जिसकी दूसरी मंजिल आधी अधूरी ना जाने कब से बनकर पूरे होने की राह देख रही थी। उसके कुछ दूरी पर बाउंड्री की ऊंची दिवार थी। उन ऊंची दिवारों के अन्दर था वीरेशा के मन को मोहने वाला।
रह - रहकर वीरेशा सोचती वह सुबह दोपहर या किसी और वक़्त नज़र क्यों नहीं आता है। क्यों वह मेरी तलाश में मेरे घर के आसपास नहीं घूमता, काॅलेज के बाहर नज़र क्यो नहीं आता? ये सवाल वीरेशा को मायूसी की तरफ धकेल रहे थे।
एक शाम वीरेशा ने इशारा कर छत से नीचे आने के लिए कहा। उसने एक चिठ्ठी दिखाकर इशारा किया।चिठ्ठी देखकर वह घबरा - सा गया और बिना कुछ कहे वहाँ से हट गया। वीरेशा को बहुत विचलित कर गया उसका यह व्यवहार। वह निराश होकर उसके हटने के बाद वहाँ से चली गयी। कुछ दिनों तक वह दिखाई नहीं दिया और वीरेशा को लगा शायद उसकी जल्दबाजी उसे पसन्द नहीं आया। अब वह ग्लानि से भर गई। उसे लगा जो अहसास धड़कनों को रवानगी दे कर मदहोश बना रहे थे वो जैसे नाराज़ होकर थम थमकर चलने लगे हैं। मगर , क्या उसकी ख्वाहिश गलत थी जो वह इस आकर्षण से शुरू हुए अनजान रिश्ते को गहरे प्यार के रंग में रंगकर जिन्दगी भर का साथी बनाकर रखना चाहती थी.. क्या उसे यह सब मजाक या समय व्यतीत करने का सिर्फ जरिया लगता था इसलिए मेरे आगे बढ़ते ही वह पीछे ना पड़ जाए सोचकर भाग खड़ा हुआ या मैं उसके प्यार के काबिल नहीं थी इसलिए उसने पलभर में मुहं फेर लिया....?
वीरेशा ने छत पर हर दिन जाकर उसका इंतज़ार करना नहीं छोड़ा। आखिर पहले अहसास का वह हिस्सा बनकर बस चुका था तैरते ख़्यालों में। आखिर वह उसके मन में, दिल में इतने अरमान जगाकर कैसे चला गया, क्यों चला गया और आखिर कहाँ गया...!
वीरेशा यूं बैचेनी में दिन - रात काटने को राजी नहीं है। वह पता करके रहेगी उसके बारे में सबकुछ।
वह आज काॅलेज नहीं गई। उस मकान की तरफ बढ़ी जिसने उसका ऐसा हाल बना दिया था। मकान खुद तो ऊंची दिवारों से घिरा अपनी हिफ़ाज़त कर रहा था वहीं वीरेशा का चैन वहाँ रहने वाले ने चुराकर उसे यहाँ तक आज आने के लिए विवश कर दिया था।
उस ऊंची दीवार के सामने पहुंचते ही वीरेशा के पैरों तले की जमीन खिसक गई और होश भी उड़ गए। वहाँ के मुख्य द्वार पर लिखा था " जेल " शहर के नाम के साथ। इसका मतलब वो एक कैदी था जो सज़ा काटने आया था और फिर सज़ा काटकर चला गया? तो आखिर यही वज़ह थी जिसके कारण उसने शर्मिंदा होकर चुपचाप निगाहें फेरकर चला गया। उसे यकीन होगा की सच्चाई का पता चलते ही मैं ही क्या कोई भी लड़की उसे नहीं अपनाएगी। इससे बेहतर है पहले ही पीछे हट जाना। वीरेशा ने घर में कई बार आस -पास में जेल होने की बातें सुनी थी लेकिन, वह खुद एक कैदी के प्यार में पड़ती जा रही थी इसका उसे अंदाजा नहीं हुआ क्योंकि, वह जेल की चारदीवारी के पीछे के हिस्से में रहती थी और बीच में एक मकान भी था जिसके कारण वह सच्चाई जान ही नहीं पाई। ऊपर के हिस्से में शायद वह अकेले ही था और एक नियत समय पर ही उसे निकलने दिया जाता था। लेकिन, अब उसने वह भी बन्द कर दिया क्योंकि, वह नहीं चाहता एक मासूम दिल से और उसकी भावनाओं से खिलवाड़ करना।
सच उसका जो भी हो, वीरेशा का वह पहला अनकहा प्यार था जिसे वह कभी भूला नहीं पाएगी।