बेदर्द
बेदर्द
शकुन्तला ये तू ही है ना ! दो साल बाद अपनी सखी को बाजार में देख कर मीना से रहा न गया, न चाहते हुए भी दिल की बात जुबान पर आ ही गई... ये क्या कर लिया अपने आप को ! (उसने अचम्भित होते हुए कहा)
कब आई ससुराल से, खबर भी नहीं की... खैर छोड़ो, ये बताओ सब कैसे हैं?
सब ठीक ही हैं...(शकुन्तला ने निगाहें नीची करते हुए कहा)
सच बताओ, क्या छिपा रही हो मुझसे, कहो न क्या बात है? तुम्हारी आँखों के काले घेरे, चेहरे की फीकी रंगत,
तुम्हारा क्षीणकाय शरीर और यों नजरें चुराकर बात करना काफी हैं ये बताने के लिये कि सब सही नहीं है |
अब क्या मुझसे भी छिपाओगी ?...मीना ने दुखी मन से कहा |
चलो घर चलते हैं ,माँ तुम से मिलकर प्रसन्न हो जाएंगी |
शकुन्तला ने बात को पलटते हुए कहा |
शायद घर चल कर कुछ पता चल जाए इसलिए मीना ने हामी भर दी |
कैसी हो मीना ! माँ ने पानी का गिलास उसके हाथ में थमाते हुए कहा |
मैं तो ठीक हूँ आँटी जी परंतु शकुन्तला को क्या हो गया है? पहले तो कितना चहकती रहती थी,अब तो एकदम मौन पड़ गई है|
अब बताने से भी होगा क्या,जब किस्मत पर ही ताले पड़े हों... 5 बरस हो चुके हैं शादी को, एक लड़की भी है पर इसके ससुराल वालों को तो लड़का ही चाहिए, अब तक इसी चक्कर में चार बार अबार्शन करवा चुके हैं | न जाने किस मिट्टी के बने हैं मुए! खुद भी तो किसी औरत की कोख से जने होंगे | इन्हें तो ऊपर वाले का भी कोई खौफ नहीं है,खुद तो पाप के भागी बने ही हैं और इसे भी जबरदस्ती उस में धकेल रहे हैं |
पहले तो लोक-लाज के मारे यह सब सहती रही, पर जब पानी सिर के ऊपर चढ़ गया तभी इसने हमें बताया | अबकी बार तो एकदम मौत के कुएँ से निकलकर आई है
डॉक्टर ने तो साफ चेतावनी दी है कि अबकी बार ऐसा हुआ तो बच न पाएगी |
गर्भपात कराना भी किसी बच्चे को जनने से कम थोड़े ही न होता है | पूरे शरीर से मानो जान ही निकल जाती है... भला मर्द क्या समझेगा औरत की इस तकलीफ
को ? ऊपर से ताने सुनो,सो अलग | ये तो वही बात हुई उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे !
मेरी हँसती खेलती बच्ची अब सूखकर लक्कड़ हो गई
है | जाने कहाँ भला होगा नामुरादों का |
यह सब सुनकर माँ के साथ-साथ मीना की आँखों से भी आँसू निकल पड़े |
अबकी बार तो मैं इसके ससुराल वालों से साफ-साफ कह आई, अब तो आर-पार का फैसला होगा | अब दोबारा कुएँ में न धकेलूंंगी अपनी बच्ची को, चाहे पूरी जिन्दगी अपने साथ ही क्यों न रखना पड़े?
कैसा समाज है ये, जहाँ आज भी सरकार की सख्ती के बावजूद न जाने कहाँ से लोग भ्रूण की जाँच करवा लेते हैं, कैसे कोई अपने पेशे को व्यापार बना देता है ! क्यों किसी न किसी जगह पर आकर सरकार की नीतियाँ कमजोर पड़ती दिखाई देती हैं ? कैसे कोई इतना पत्थर दिल बन जाता है कि जो दुनिया में आना चाहता उसे आने से पहले ही रोक दिया जाता है ? क्यों इंसान कुदरत के कानून के मध्य रूकावट बनना चाहता है ? क्यों जन्म से पहले ही इस लैंगिक भेदभाव की दीवार से टकराना पड़ता है? क्यों एक फूल को खिलने से पहले ही जड़ से काट दिया जाता है?
मीना के मन मस्तिष्क में इस तरह के न जाने कितने सवाल कौंध रहे थे? उसने शकुन्तला की ओर देखा, वो अभी भी मौन थी...किसी पत्थर की भाँति, बस एकटक शून्य को निहार रही थी |