बदलती दूनिया बदलते लोग
बदलती दूनिया बदलते लोग
"अधिपति तीनों लोक के, खाये विदुर घर साग,
स्वाद भरा था प्रेम का,
साग बना अनुराग।
बात प्रेम की व आदर सत्कार की हो तो नमक का स्वाद भी अति उत्तम लगता है, लेकिन यहां,आदर सत्कार या प्रेम भाव नहीं उस घर चाहे लाखों पदार्थ भी बनें हों तो सब फीके के समान होते हैं,विदुर जी का प्रेम, भाव,आदर सत्कार भगवान ऋी कृष्ण जी को इतना भाया की उनका रूख दुर्योधन के घर की छाया से भी दूर हो गया हालांकि उसने कई किस्म के पदार्थ बनाये थे, इससे साफ जाहिर होता है कि इज्जत मान की सूखी रोटी में भी बहुत ताकत है,
लेकिन आज कल देखा गया है, अतिथि का आदर मान पहले की तरह नहीं किया जाता क्योंकी किसी के पास इतना समय नहीं जो उसका ठीक ढंग से हाल चाल भी पूछ सके,या वो किस कारण आया है तथा उसकी क्या समस्या है,कहने का भाव सिर्फ फार्मिलटी बन कर रह गई है, पानी तक बाजार का पिला कर अतिथि का सत्कार किया जाता है,बनावटी खाना तथा बनावटी प्यार ही दिखाई देने लगा है,खैर अतिथि भी शायद बनावटी चीजें ही पसंद करते हैं कारण चाहे कोई भी हो लेकिन आपसी भाईचारे व प्रेम भाव में कमी का यही कारण है,पहले लोग घर में बना हुआ खाना ही परोसते थे तथा अतिथि के साथ मिल बैठ कर खाते थे,जिस से प्रेम भाव बढता था तथा एक दुसरे की भावना को समझा जाता था लेकिन जमाने में अकेलापन व हर बात को छुपाने के कारण अतिथि के आदरमान में बहुत कमी नजर आ रही है,अपनापन दूर होता जा रहा है,फैशन के दौर में गरीब की कोई पहचान ही नहीं रही चाहे वो कितना भी नजदीकी रिश्तेदार ही क्यों न हो हरेक झिझक कर ही एक दुसरे के घर जाता है,इसके कारण गरीब हमेशा गरीब ही रह जाता है,क्योंकी उसे उठाने वाले उसे अपना कहने में भी शर्म महसूस करते हैं,
पहलेअक्सर कहा जाता था ,अतिथि देवो भव कहने का भाव अतिथि को भगवान का रूप माना जाता था लेकिन समय बदला रश्मों रिवाज भी बदल गए,किसी के पास हाल चाल पूछने का समय नहीं रहा,वो दिन दूर नहीं जब इंसान एक दूसरे को देख कर खिसकने का प्रयास करेगा ऐसे में इंसानियत तो खत्म होने के कगार पर पहुंच सकती है, हमें इंसानियत को कायम रखने की जरूरत है यह तभी संभव है जब हम अपने बच्चों के मन में बचपन से ही ऐसे संस्कार भरें की अतिथि भगवान का रूप होता है उसका आदर सत्कार करना हमारा धर्म है तभी जा कर इंसानियत कामयाव रह सकती है, नहीं तो इंसान अपने घर के पिंजरे में ही बन्द रह कर बन्दी बन कर रह जायेगा, जब तक हम एक दुसरे का सम्मान नहीं करेंगे तब तक हम इंसान कहलाने के काबिल नहीं हैं,सच कहा है,
आवत हिये हरखे नहीं नैनन नहीं स्नेह तुलसी
तहां न जाईये कंचन बरसे मेह।
कहने का भाव हमें अतिथियों का सम्मान करना चाहिए और अपने कीमती समय से कुछ समय निकाल कर अपने अतिथियों के साथ खुशीपूर्वक व्यवहार करना चाहिए ऐसा करने से प्यार भावना बढती है तथा आपसी भाईचारा मजवूत होता है,नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब इंसान भी एक पिंजरे का पक्षी बन कर रह जायेगा,और अन्त यही होगा,
"पिंजरे के पंक्षी रे तेरा दर्द न जाने कोये,तेरा दर्द न जाने कोय" ।