STORYMIRROR

Diwa Shanker Saraswat

Inspirational Others

3  

Diwa Shanker Saraswat

Inspirational Others

बदलाव भाग ३

बदलाव भाग ३

6 mins
389


  विक्रम पंचांग निर्माण का श्रेय एक विदुषी खगोलशास्त्री को जाता है। वैसे राजा विक्रमादित्य कौन थे, जिन्होंने विक्रम संवत की शुरुआत कि थी। इस पर अनेकों मत हैं। पर सबसे ज्यादा प्रचलित मत इस प्रकार है।

  भारतीय इतिहास में गुप्त वंश को स्वर्ण युग के नाम से जाना जाता है। उसी वंश के महाप्रतापी राजा चंद्रगुप्त को ही चंद्रगुप्त विक्रमादित्य माना जाता है। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य मोर्य वंश के संस्थापक व चाणक्य के शिष्य चंद्रगुप्त मोर्य से अलग राजा थे।

 माना जाता है कि महाराज विक्रमादित्य के राज्य में कला, संगीत, विज्ञान,, साहित्य के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति हुई। महरोली में स्थित लोह स्तंभ भी उन्हीं के काल का माना जाता है। जिसपर जंग नहीं लगती है।

 माना जाता है कि महाराज विक्रमादित्य की सभा में अलग अलग क्षेत्रों के नौ विशेषज्ञ थे। जिनमें साहित्य के कालिदास व विज्ञान के वाराहमिहिर थे।

  वाराहमिहिर के विषय में एक अन्य तथ्य बताया जाता है कि वाराहमिहिर शायद पिता और पुत्र की जोड़ी थे। उनमें वाराह पिता व मिहिर उनके पुत्र थे।

  जनश्रुतियों के अनुसार गणना में भूल के कारण वाराह ने अपने पुत्र मिहिर को बचपन में ही त्याग दिया था। मिहिर का पालन सिंहल द्वीप के एक विद्वान ने किया। उनकी पुत्री खना से मिहिर को प्रेम हो गया। खना से मिहिर ने विवाह कर लिया था।

  युवावस्था पर मिहिर वापस भारत आया। दो प्रमुख ज्योतिषियों की भेंट हुई। फिर ज्योतिष के अन्वेषण से ही उन्हें एक दूसरे से संबंधों का पता चला।

  वैसे महाराज विक्रमादित्य का काल बदलाव का काल कहा जाता है। उन्होंने एक और बदलाव करना चाहा। जो उस समय के पुरुष समाज को पसंद नहीं आया। बदलाव न कर पाने की पीड़ा शायद जीवन उनके मन में रही। यदि वह बदलाव हो जाता तो शायद विज्ञान के क्षेत्र में बहुत उन्नति हो जाती।

  सच्चाई यह है कि बुद्धिमान राजा को ज्ञात हो गया कि वाराह व मिहिर के अधिकांश खोजों में मिहिर की पत्नी खना उनकी साथी है। वह खुद खगोलशास्त्री हैं। जिस विक्रम पंचांग को वाराहमिहिर की शोध समझा जा रहा था, वह खना की खोज है। महाराज महाविदुषी खना को अपने दरवार में स्थान देकर एक बदलाव करना चाह रहे थे। वह बदलाव न हो पाया। अलग अलग विवरण मिलते हैं। एक मत के अनुसार खना ने खुद अपने प्राण दे दिये। खना बदलाव तो न कर पायीं। पर बदलाव की नींव रख गयीं। स्त्रियाँ कहीं भी पुरुषों से पीछे नहीं हैं, यह सिद्ध कर गयी।

  परोपकार में जीवन बिताने वाले हमेशा सम्मान के अधिकारी होते हैं। पर ऐसा होता नहीं है। शास्त्रीय मर्यादा को कितने लोग मानते हैं। वास्तव में शक्तिशाली का ही सम्मान होता है। तथा जब भी किसी परोपकारी को सम्मानित करने का प्रयास किया गया है, शक्तिशालियों ने विरोध किया है। पर बदलाव आवश्यक है। पद, शक्ति, से ऊपर सोचने बाले भी मिल जाते हैं। फिर सामाजिक व्यवस्था में आमूल बदलाव होता है। ऐसी ही एक पौराणिक गाथा सुनाता हूं।

  देवताओं में आश्वनीकुमार परोपकारी थे। दोनों भाइयों का जीवन लोगों की चिकित्सा करने में बीतता था। शल्य चिकित्सा की स्थापना उन्होंने ही की थी। यह माना जाता है। उनके प्रमुख कार्य ऐसे हैं जो आज के चिकित्सा विज्ञान के लिये भी आश्चर्य का विषय है। उन्होंने गणेश जी को गजमुख लगाकर, राजा दक्ष को अजमुख लगाकर जीवन दिया था। महारानी कैकेयी ने रथ के पहिये में अपना हाथ रख कर महाराज दशरथ को विजय दिलायी थी। इसमें उनका हाथ एकदम बेकार हो गया। अश्विनीकुमारों की चिकित्सा से ही वह स्वस्थ हुई थीं।

 स्पष्ट उल्लेख है कि अश्विनीकुमारों का देव समाज में कोई सम्मान न था। उनके साथ सेवकों जैसा व्यवहार होता था। जब सारे देव सोमरस का पान करते थे, तब उन्हें साथ बैठने भी नहीं दिया जाता था।

   अपने ही साथी के प्रति इस व्यवहार के समर्थन में उनके अजीबोगरीब तर्क थे। आश्वनीकुमार चीर-फाड़ करते हैं। अनेकों बार अपने प्रयोग छोटे जीवों पर करते हैं। अनेकों जीवों की हिंसा करते हैं। इसलिये देव मानने योग्य नहीं हैं।

 हजारों देव दानव युद्ध में अनेकों को मारने बाले दूसरे देव देव हैं। पर परोपकार कर नव जीवन देने बाले चिकित्सक देव नहीं हैं। शोध के लिये की गयी हिंसा को परोपकार से धोने का प्रयास करते हुए भी आश्वनीकुमार शुद्ध नहीं हो पा रहे थे।

  ऐसा नहीं है कि आश्वनीकुमार अपना सम्मान प्राप्त न कर सकते हों। जब भी किसी की चिकित्सा की बात हो तो वह सभी देवों को अपने सामने झुकने पर वाध्य कर सकते थे। पर यह तो चिकित्सकीय सिद्धांत के खिलाफ है। रोगियों की परिस्थिति से लाभ उठाने बाले अच्छे चिकित्सक नहीं होते हैं। अश्विनीकुमारों ने कभी भी अपने कर्तव्यों से मुख नहीं मोड़ा। पर उन्हें उनका सम्मान नहीं मिला। किसी ने भी उनका समर्थन नहीं किया। शायद कोई दूसरे शक्तिशाली देवों का विरोध न चाहता हो।

 ईश्वर का विधान था कि महर्षि भृगु के पुत्र महर्षि च्यवन बृद्धावस्था में तपस्या करते समय राजा श्रयाति की पुत्री सुकन्या की भूल से अंधे हो गये। वैसे सुकन्या उस समय किशोरावस्था में ही थी। पर उसने अपनी भूल मान महर्षि से विवाह कर उनकी देखभाल करने का निर्णय लिया।

 इस तथ्य को अनेकों तरीकों से देखा जा सकता है। कुछ सुकन्या की मजबूरी तो कुछ उसपर अत्याचार भी कह सकते हैं। पर यह निर्विवाद सत्य है कि सुकन्या का महर्षि च्यवन से विवाह कैसे भी हुआ हो, पर सुकन्या ने अपने कर्तव्य पालन में कोई कमी नहीं की। महर्षि च्यवन का भी उसके त्याग को देखकर दुखी होने का भी वर्णन है।

  सुकन्या किशोरी से युवती हो गयी। अनुपम सुंदरी स्त्री जिसका पति वृद्ध, शक्तिहीन व अंधा हो, के अनेकों शत्रु होते हैं। लगता है कि अनेकों शक्तिशाली लोगों की नजर सुकन्या के प्रति ठीक न थी। पर वे उसके पातिव्रत्य तेज से डरते थे। सुकन्या को धोखा देकर उसका पातिव्रत्य खंडित करने का भी विचार था।

  उसी समय अश्विनीकुमारों से पहले तो सुकन्या के पतिप्रेम की परीक्षा ली। फिर महर्षि च्यवन का इलाज किया। न केवल उनकी आंखें सही कर दीं। अपितु उन्हें स्वस्थ व युवा भी कर दिया।

  महर्षि च्यवन व उनकी पत्नी सुकन्या ने सभी को अश्विनीकुमारों का सम्मान करने के लिये जागरूक किया। पर शक्तिशाली देवों के भय से कोई भी उनका साथ देने को तैयार न था।

  बदलाव का पुरजोर विरोध हो रहा था। पर महर्षि च्यवन व देवी सुकन्या सही थे। इसलिये धीरे धीरे कुछ उनके पक्ष में भी आते गये।

  सबसे पहले राजा श्रयाति ने ही अपने यज्ञ में अश्विनीकुमारों को उनका यज्ञ भाग देने का निश्चय किया। दूसरे देवों के भय से पंडितों ने यज्ञ कराने से मना किया। फिर यज्ञ महर्षि च्यवन ने कराया। देवों के मुख कहे जाने बाले अग्निदेव ने देवभाग लेने से मना कर दिया। यज्ञ का देवों ने वहिष्कार कर दिया।

  महर्षि च्यवन ने फिर अपनी तपस्या के प्रभाव से सभी देवों को प्रत्यक्ष प्रगट कर यज्ञ भाग लेने को वाध्य किया। जब वह आश्वनीकुमारों को यज्ञ भाग दे रहे थे, उसी समय इंद्र सहित अनेकों देवों ने उनपर प्राणघातक हमला भी किया। महर्षि च्यवन ने सभी देवों को जड़ रूप कर दिया।

  वास्तव में महर्षि च्यवन का उद्देश्य किसी देवता का निरादर करना न था। अपितु सही दिशा में बदलाव लाना था। सही दिशा में किये गये प्रयास हमेशा सफल होते हैं। सभी देवों के साथ साथ सभी मनुष्यों ने भी अश्विनीकुमारों को मान्यता दी। चिकित्सक ईश्वर का रूप होते हैं, इस बहुचर्चित सिद्धांत के जन्मदाता महर्षि च्यवन व देवी सुकन्या ही माने जाते हैं।

  हमेशा बदलाव का विरोध होता है। पर यदि बदलाव के सही कारण हैं तो बदलाव करना होता है। अनेकों विरोधों का सामना करने को तैयार रहना चाहिये। कोई भी साथ न दे तो भी अकेले चलना चाहिये।

 गुरु रवींद्र नाथ टैगोर ने भी एकला चलो रे कविता में कुछ यही भाव दिये हैं।

आज के लिये इतना ही। कल फिर से बदलाव की दूसरी कहानियों के साथ आऊंगा।

आप सभी को राम राम।


  

  



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational