बद्दुआएँ
बद्दुआएँ
"क्या दवाई की खाली शीशियाँ मिल गई हैं? ये तूने बहुत अच्छा काम किया नन्दू! अब देखना कैसे वारे न्यारे करते हैं हम लोग। पहले ही कितनी मँहगी दवाएँ हैं ये, और ब्लैक में बेचेंगे तो फिर तो कहने ही क्या। मैं एक घंटे में मिलता हूँ तुझसे।"
प्रमोद ने फोन रख दिया। वह खुशी से फूला नहीं समा रहा था। उसकी माँ और पत्नी भी फोन की बातें सुनकर इतना तो समझ गई थीं कि वह कुछ नकली दवाओं की बात कर रहा था।
माँ ने पूछा
"ये तू क्या बात कर रहा था नन्दू से ? कोई गलत काम मत करना बेटा। तू कहीं नहीं जा रहा है। चुपचाप घर में बैठ। वैसे भी बेवजह घर से निकलने पर पाबंदी है।"
"कैसी बात कर रही हो माँ? इतनी मुश्किल से तो कमाई का मौका हाथ आया है। कब से काम धन्धा ठप्प पड़ा हुआ था। देखना ऐसे दो चार अवसर मिल जाएँ तो मालामाल हो जाएँगे हम।"
"पर नकली दवा से किसी की जान चली गई तो? हत्या का पाप लगेगा तुझे। वैसे ही सारी दुनिया परेशान है। किसी मजबूर की हाय मत लेना बेटा। गलत राह पर चल कर कमाया हुआ धन खर्च भी फिजूल में हो जाता है बेटा। तेरे किसी काम का नहीं होगा ऐसा पैसा"
" माँ दुनिया में तो लोग वैसे भी भगवान को प्यारे हो रहे हैं। मैं थोड़ी न किसी की जान लूँगा। अगर उनकी किस्मत में मरना होगा तो मर जाएँगे नहीं तो बच जाएँगे। मैं कमाई का मौका क्यों छोड़ूँ?"
माँ कुछ और कहती कि प्रमोद की पत्नी बोल उठी
"माँ का भाषण तो चलता ही रहेगा। इनसे तो आपकी तरक्की देखी नहीं जाती। आपको देर न हो जाए, आप जाओ नन्दू से मिलने।"
बहू के आगे तो वैसे भी माँ की चलती नहीं थी। फिर भी इसके आगे कुछ कहती कि तब तक प्रमोद निकल गया।
इसके बाद तो कभी खाली ऑक्सीजन सिलेंडर बेच कर, कभी ब्लैक में असली तो कभी नकली दवाई बेच कर पन्द्रह दिन में ही खूब कमाई कर ली उसने। पत्नी नोट गिनकर फूली नहीं समाती तो माँ का दिल उन सबके लिए दुआ माँगता जो उनके बेटे की धोखाधड़ी का शिकार हो रहे थे।
परन्तु एक दिन प्रमोद कोरोना को अपने साथ घर ले आया। पूरा परिवार बीमारी की चपेट में आ गया था। माँ को हल्का संक्रमण था और वह घर में ही ठीक हो रही थीं, परंतु प्रमोद और उसकी पत्नी दोनों की ही हालत ज्यादा खराब थी। अस्पताल में बेड उपलब्ध नहीं थे। नन्दू ने मँहगी ऐम्बुलेंस का इंतजाम करके किसी तरहजान पहचान के एक प्राइवेट अस्पताल में दोनों को भर्ती करा दिया।
प्रमोद तो कुछ दिनों में कुछ ठीक हो गया और अस्पताल से छुट्टी भी मिल गई। परन्तु पत्नी की हालत बिगड़ती जा रही थी। ऑक्सीजन की गंभीर रूप से कमी थी और अस्पताल में ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं थी। प्रमोद में भागदौड़ करने की हिम्मत नहीं थी बावजूद इसके वह ऑक्सीजन के लिए दर दर भटक रहा था। पचपन हजार खर्च करके एक जगह से इन्तजाम हुआ भी पर लगाने पर पता चला कि सिलेंडर खाली था। नन्दू से असली दवा के लिए मिन्नतें की पर वह भी मौके का फायदा उठाने में क्यों पीछे रहता? लिहाजा दवाई मिली जरूर परन्तु असली नहीं थी। पैसा पानी की तरह बहाने के बाद भी पत्नी को बचा नहीं पाया प्रमोद। अस्पताल से सीधे ही दाह संस्कार के लिए ले जाया गया उसे। एक बार घर भी नहीं आ पाई वह।
शाम को क्रियाकर्म निबटने के बाद जब घर लौटा प्रमोद तो माँ से लिपट कर बिलख बिलख कर रो रहा था। उसके मुख से बस यही निकल रहा था
"माँ तुमने सच ही कहा था कि बेईमानी से कमाया हुआ धन किसी काम का नहीं होता। काश मैंने तुम्हारी बात सुनी होती। इतने लोगों की बद्दुआएँ नहीं ली होतीं। कितना कोसा होगा उन लोगों ने मुझे जिनके अपने मेरी कालाबाजारी और फरेब से चले गए। जिस परिवार के लिए कमाया, वही बरबाद हो गया। मेरी पत्नी बचती या नहीं, ये ईश्वर की इच्छा होती परंतु तब अपराध बोध तो नहीं होता मुझे।"
माँ उसके सिर पर साँत्वना का हाथ फेरती खामोश खड़ी थी। अब किया भी क्या जा सकता था ?