बौनी उड़ान

बौनी उड़ान

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आज अपनी कहानी से रुबरु हो जाती हूँ।

मात्र सोलह पूरे होने पर रिश्तेदारों की निगाहें मुझ पर टिक गई ग्यरहवी की परीक्षा दी थी कि रिशते आने लगे शादी होना क्या होता है नहीं मालूम था। कभी माँ पापा को एक साथ बैठे नहीं देखा। हमेशा ही लड़ते झगड़ते देखा कभी कभी तो लगता शादी क्यों की दोनों ने।

मैं भी नहीं करुंगी क्लेश भरा जीवन कभी कभी तो पापा घर न आते और उस दिन हम भूखे रहते। मैंने अपनी एक आन्टी से कुछ काम के लिए कहा जिससे मैं अपनी फीस भर सकूँ। आन्टी ने एक नन्हीं सी बेटी का ट्यूशन मात्र सौ रूपये में लगवा दिया। 1987 में सौ रूपये की कीमत पाँच सौ के बराबर थी।

जो बहुत जयादा थे। मैंने मन लगाकर ट्यूशन पढ़ाया इनटर की बोर्ड फीस भरी किताबें ली मेरा रिश्ता देहरादून हो गया पति की इच्छा थी कि मैं आगे पढूं। 1990 में मेरा विवाह गढवाल रुद्रप्रयाग पति के पैतृक गाँव में हो गया।

मेरे पति देहरादू नौकरी करते थे। मैं सास के साथ पहाड़ में मेरे सपने वादे धराशायी हो गये। पढ़ाई छूट गई और पहाड़ के काम में वयस्त एक टूटन थी। एक दिन नदी से पानी ला रही थी कि गिर गई चोटेआई ससुर जी ने गाँव छोडकर मुझे देहरादून रहने को कह दिया हम सब देहरादून आ गये और देहरादून में जमीन ली। मैंने एक साल के बेटे होने पर शिक्षाआगे बढ़ाई मैं एक प्राईवेट सकूल में पढ़ाने लगी।

सपना था प्रवक्ता बनने का पर सहयोग न मिला परिवार का पर एक अधयापिका बनकर अपनी बौनी उड़ान को पंख दिये।


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