बैठक
बैठक


दिया के मामा ससुर प्रभात जी अचानक चल बसे थे, कल उनकी तीसरे की बैठक थी। सारी तैयारी हो रही थीं, दिया अंदर मामा जी की बहु विनीता के साथ रसोई में लगी हुई थी। अभी चार दिन पहले ही बुआ के यहाँ उनके पोते के जन्मदिन में सब मिले थे। मामा जी भी थे, अच्छे खासे खुद चलकर आये थे। सबसे मिलना जुलना उन्हें बहुत पसंद था और अगले ही दिन अचानक तबीयत खराब हुई।
बेटा अस्पताल ले गया, डॉक्टर ने भर्ती कर लिया। पहले तो सारी जांचे की तो पता लगा किडनी ने काम करना बंद कर दिया है। तुरंत डायलिसिस पर रखा और भी सारी जांचे कर हर संभव इलाज किया गया। विशेषज्ञों को बुलाकर भी दिखाया गया, पर वो तो जैसे वापस ना आने को ही गए थे। दिव्या के पति आदित्य के परिवार में चार भाई और दो बहनें उसकी सास को मिलाकर थे। प्रभात मामा जी सबसे छोटे थे और सबसे अच्छे भी।
आदित्य के दो भाई और थे जो शहर से बाहर रहते थे, तो वो तो आये नहीं। दिव्या, उसकी सास प्रमिला जी और आदित्य और उनका बेटा अरनव मामा जी के घर पर ही थे। बाकी के अधिकतर रिश्तेदार भी उसी शहर में रहते थे तो किर्याक्रम में अधिक देर नहीं हुई। विनीता भाभी और उनके पति सौरव भी कामकाजी थे तो आने जाने वालों की भीड़ लगी हुई थी। सौरव भैया के हालात बहुत ख़राब थे, वो बहुत टूट गए थे।
दिव्या की सास का मायका था वो तो वो हर आने जाने वालों को जानती थीं। दिव्या की शादी शहर से बाहर हुई तो अधिकतर लोग उसमें शामिल नहीं हुए थे। इसलिए उसकी सासु माँ जो भी आ रहा था उनसे दिव्या का भी परिचय करवा रही थीं। दिव्या को बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था, उसने माँ से कहा भीं "माँ ये समय नहीं है सबसे मिलवाने का"। पर माँ तो माँ थीं, उन्हें अपनी छोटी बहु को सबसे मिलवाना था।
अगले दिन बैठक की तैयारी सुबह से हो गयी थी, बाहर आँगन में सफ़ेद शामियाना लग चुका था, कुर्सियां भी आ गयी थीं, नीचे सफ़ेद बिछायत हो गयी थी। दिव्या सोच रही थी कैसे ये दुनिया अचानक रंगहीन हो जाती है। मामा जी की तस्वीर, ताजे हार फूल। सब कपड़े बदलकर बाहर बैठ गए, दिव्या ने कपड़े नहीं बदले। उसकी सासु माँ डांट रही थीं कपड़े बदल लो तो वो बोली "ठीक है माँ और वैसे भीं मैं बाहर नहीं बैठने वाली हूँ"। तो प्रमिला जी फिर थोड़ी नाराज़ हुईं, लेकिन लोग आने लगे थे तो वो विनीता भाभी के साथ बाहर जाकर बैठ गईं।
दिव्या अंदर ही सोफे पर बैठी थी, एक दो बार प्रमिला जी ने लोगों से मिलवाने उसे बाहर बुलाया तो उसने बच्चे का बहाना कर दिया, अंदर ही रही। शाम ढल गयी थी, अब सिर्फ रिश्तेदार और ज्यादा पहचान के लोग थे। फिर प्रमिला जी ने दिव्या को बाहर बुलवाया, अबकि बार उसे जाना पड़ा। प्रमिला जी ने दिव्या को किसी परिचित से मिलवाया, दिव्या ने प्रणाम किया और चुपचाप खड़ी हो गयी, फिर जो भी वो पूछते रहे उसका जवाब देती रही। वो देख रही थी, माहौल गपशप का सा हो गया था। दो चार दो चार के समूह में सब बैठे बतिया रहे थे, किसी की भी चर्चा का विषय मामा जी नहीं लग रहे थे, सब अपनी ही मस्ती में बतिया रहे थे।
जिन परिचित से प्रमिला जी ने मिलवाया था, वो अब दिव्या और उसके पति को दूसरा बच्चा प्लान करने की नसीहत दे रहे थे। दिव्या को गुस्सा आ रहा था, कैसे लोग हैं, किस जगह आये हैं, क्या बात करना चाहिये, ये भी नहीं समझते। बस इसलिए वो अंदर थी। प्रमिला जी ने भी उनके जाने के बाद कहा कि आई क्यूँ नहीं? कितने लोग तुमसे मिलना चाह रहे थे। दिव्या को तो वैसे ही गुस्सा आ रहा था। वो बोली "माँ ये कोई समय नहीं है लोगों से मिलने मिलाने का। जिन्हे मिलना है उन्हें घर बुलाइए, मुझे नहीं पसंद ऐसे समय में लोगों से मिलकर गप्पे लगाना।"
प्रमिला जी गुस्सा होकर बोली "किसके पास समय है घर आने का ?"
दिव्या बिना कुछ कहे अंदर विनीता भाभी का हाथ बटाने रसोई में चली गयी। मन ही मन ये सोच रही थी, पता नहीं कब इस तरह के लोग सुधरेंगे जो कहीं भी, कुछ भी, बिना सोचे समझे बोलते हैं। स्थान और समय की नाजुकता का भी लिहाज नहीं करते, ये भी नहीं देखते कि कहां खड़े हैं किस से बोल रहे हैं और क्या शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं, क्या बोलना चाहिये, हम किस लिए आये हैं!"
पुराने जमाने से ये रीतियाँ चली आ रही हैं, पूर्व में जो बड़े बूढों ने ये सब प्रथाएं चलायी थीं, उसका कारण था लोगों का आना। चार लोग आते थे, बोलते थे, सांत्वना देते थे, दुख बाँटने की कोशिश करते थे। परन्तु अब सांत्वना देना तो लोग भूल जाते हैं, बस आकर औपचारिकता पूरी करते हैं और बैठ जाते हैं गप्पे लड़ाने। दिव्या अब भी मन ही मन सोचे जा रही थी कि इससे तो अच्छा है बैठक की प्रथा ही बंद कर दी जाये।