खिलाड़ी
खिलाड़ी
लड़की हो क्या कर लोगी। बस ये बात बचपन से सुनते हुए आयी। मध्य प्रदेश के छोटे से जिले धार में एक मध्यम वर्गीय परिवार में मैं पली बड़ी। घर की बड़ी बेटी। पापा ने सोच कर रखा था जो भी बच्चा होगा उसे खिलाड़ी बनाएंगे पर मेरी किस्मत ख़राब थी मेरे हार्ट में होल था डॉक्टर ने कह दिया था की बड़ी होने के बाद ऑपरेशन करना पड़ेगा। पापा ने मुझे संगीत स्कूल में डाल दिया संगीत सीखने के लिये। पापा खुद स्पोर्ट्स पर्सन थे। बहुत से खेलो के जानकर थे सबको सिखाते थे पर खुद की बेटी को नहीं सीखा पाए। दूसरी भी उनकी बेटी ही थी तो शायद उन्होंने उम्मीद छोड़ दी थी। पंद्रह साल की होने के बाद जब सारे टेस्ट हुए तो पता चला की वो होल बंद हो गया है। सबसे ज्यादा खुश पापा ही थे। फिर शुरू हुयी असली जंग। स्पोर्ट्स फील्ड मे कदम रखा पापा के साथ। बैडमिंटन को प्रोफेशनल खेल के रुप में चुना। उसके पहले टेबल टेनिस खेला मजा नहीं आया। जुडो में स्टेट खेली मजा नहीं आया।। बैडमिंटन ही मन को अच्छा लगा। पर एक अकेले पापा का वेतन और इतना महंगा खेल, बहुत ज्यादा कठिनाई आयी। पर अब सोच लिया था खेलना है खिलाड़ी बनना है। डिस्ट्रिक्ट में विनर बनने के बाद आगे रास्ते कठिन थे और बहुत देर से शुरू करने के कारण बहुत पीछे रह गयी थी। स्कूल मे स्टेट चैंपियन बनी। कॉलेज मे यूनिवर्सिटी कप्तान बनने का मौका मिला। सुविधाओं के अभाव में ज्यादा कर पाने का मौका नहीं मिला। लेकिन बीस साल की उम्र में, खेल कोटा में सरकारी नौकरी जरूर मिल गयी।
पापा की इच्छा पूरी हुयी। छोटी बहन ने भी राष्ट्रीय खिलाड़ी बन पापा का नाम रोशन किया। सब लोग पापा के पीछे पड़े रहते थे की लड़कियों पर पैसा क्यूँ खर्च कर रहे हो। फिजूल जायेगा यहाँ तक की दादा दादी और बुआ तक कहती थी तुम्हारी लड़कियां भाग जायेगी। पर पापा ने किसी की नहीं सुनी। उन्होंने हम पर विश्वास रखा और हम दोनों बहनों को खिलाड़ी बनाया। वाकई छोटे शहर में लड़कियों का खिलाड़ी के रूप में आगे बढ़ना लोगों को बहुत खटकता है।
रेलवे में नौकरी करने के बाद खेलने को समय कम मिलने लगा तो निर्णायक की परीक्षा दी। राज्य स्तर पर प्रथम आयी। ज़ब राज्य की प्रतियोगिता में निर्णायक के तौर पर काम करना शुरू किया तो बहुत आलोचना हुयी क्योंकि उम्र सिर्फ बावीस साल की थी बड़ों को खलने लगा। और सबसे जरूरी बात मैं लड़की थी।
आज तक मध्य प्रदेश में कोई महिला निर्णायक नहीं थी। पुरुषों का बोलबाला था। सबने विरोध किया। पर मैंने अपना काम जारी रखा। मुझे निर्णायक के रूप में काम करना बहुत अच्छा लग रहा था। बहुत मेहनत की। राष्ट्रीय स्तर पर ग्रेड दो की परीक्षा में शामिल होना था आधे से ज्यादा लोगों ने सीधे बोल दिया कभी पास नहीं हो पाओगी।
अपनी मेहनत के दम पर पास हुयी और अबके मुँह पर तमाचा लगा। अब सबकी बोलती बंद हो गयी थी। अब मेरा काम बोलता था। अब हर कोई निर्णायक के रूप में मुझे बुलाना चाहता था वो लोग भीं जिन्हे कभी मुझसे सबसे ज्यादा तकलीफ़ थी।
सबसे शानदार अनुभव बैडमिंटन वर्ल्ड चैंपियनशिप और कॉमनवेल्थ गेम्स मे शिरकत करने का रहा। दोनों जगह में उम्र में सबसे छोटी थी।
राज्य की एकमात्र महिला निर्णायक और पूरे भारतीय रेलवे की भी एकमात्र महिला निर्णायक के रूप में मैंने अपनी पहचान बनायीं।
ग्रेड वन की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में पास कर राज्य की एकमात्र ग्रेड वन निर्णायक का गौरव प्राप्त किया। 2017 में पहली अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता मे शिरकत किया। ये सब कुछ सपने जैसा ही था । कभी सोचा नहीं था इतना कर पाऊँगी। हमेशा घर और बाहर नकारात्मक लोग ही मिले जिन्होंने कभी आगे नहीं बढ़ाया।। बस पापा और पति दोनों ने हौसला बढ़ाया और आज अपनी एक पहचान बनाने में सहायता की। जो कभी कहते थे लड़की हो क्या कर लोगी वो आज कहते है सीखो इनसे कुछ लड़की होकर भी आज कहां पहुंच गयी है। जो कभी नहीं चाहते थे की मैं निर्णायक बनूँ आज वो खुद अपनी बेटी को मेरे बराबर लाने के लिये लोगों के हाथ जोड़ रहे है। अच्छा लगता है देख कर की जो किया अपनी मेहनत से किया किसी के आगे हाथ नहीं जोड़े। । बस अपने सपनों को पूरा करने की ठान लो जरूर पूरे होंगे। हार कर भी हार नहीं मानी कभी। बस अब कुछ कदम और फिर ओलंपिक। हाँ मैं लड़की हूँ और मैं खिलाड़ी हूँ।।