STORYMIRROR

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

3  

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

बैक्वर्ड/फॉरवर्ड कम्पैटबिलटी

बैक्वर्ड/फॉरवर्ड कम्पैटबिलटी

6 mins
177

बैक्वर्ड/फॉरवर्ड कम्पैटबिलटीपश्च संगतता (Backward compatibility) अर्थात पिछले से अनुकूल रखकर आगे के आविष्कार करने की इस उक्ति (Phrase) का कंप्यूटर शब्दावली (Terminology) में अधिक प्रयोग किया जाता है। इलेक्ट्रॉनिक्स एवं कंप्यूटर क्षेत्र में नित नए नए विकास हो रहे हैं। यह क्षेत्र ऐसा है जिसमें बीते कल की सामग्री (Hardware) आज पुरानी हो जाती है। 

उदाहरण में लैपटॉप के यूएसबी/चार्जर इंटरफेस की बात लेते हैं। जैसे जैसे समय बीत रहा है वैसे वैसे अब लैपटॉप पतले और हल्के (Sleek and Lightweight) होते जा रहे हैं। ऐसे में उसके विभिन्न इंटरफेसेस/पोर्ट छोटे होते जा रहे हैं। ऐसे में अब अगर हमारे पास पुरानी पेन ड्राइव है तो उसके लिए यूएसबी का बड़ा (पुराना) पोर्ट आवश्यक होता है। जबकि नए यूएसबी पोर्ट छोटे आ रहे हैं। 

बैक्वर्ड कम्पैटबिलटी के लिए कई कंपनी अपने लैपटॉप में नए टाइप के 3-4 यूएसबी पोर्ट के साथ एक पुराना पोर्ट भी (दोनों) रख देते हैं ताकि नए लैपटॉप में जरूरत पर पुरानी डिवाइस से भी काम किया जा सके। 

बैक्वर्ड/फॉरवर्ड कम्पैटबिलटी, इस शीर्षक में मेरे इस आलेख का प्रयोजन, कंप्यूटर की बात करना नहीं है। मैं इस फ्रेज को मानव जीवन से जोड़कर देखते हुए अपने आशय /विचार यहाँ लिपिबद्ध कर रहा हूँ। 

कंप्यूटर के तेज बदलाव के कारण, पिछले तीन चार दशकों (Decades) में विश्व में एवं इससे मानव जीवन में भी अत्यंत द्रुतगामी (Speedy) बदलाव आए हैं। इससे यह स्वाभाविक (Natural) है कि अब विचारशैली एवं जीवनशैली हर छह/आठ वर्षों में बदल रही है। अर्थात आज सिर्फ छह/आठ वर्ष बड़ा व्यक्ति, छोटे व्यक्ति को पूर्व पीढ़ी (Old Generation) का प्रतीत होने लगता है। जबकि पूर्व के समय में वैचारिक पीढ़ी परिवर्तन 16-20 वर्षों में मानी जाती थी। 

जब विचारशैली एवं जीवनशैली ऐसी तीव्र गति से बदल रही है तब हमें अपने जीवन में वह परिवर्तन एवं अपनाना अपेक्षित एवं आवश्यक होता है, जिससे हम अपने बच्चों को कोई अति प्राचीन मानव जैसे प्रतीत न हों। 

सत्तर के दशक के अपने वारासिवनी के लड़कपन (Teen age) को जब मैं स्मरण करता हूँ तब मेरे सामने एक आज से अत्यंत भिन्न परिदृश्य होता है। 1975 में मेरी बड़ी बहन, हमारे जैन मोहल्ले की पहली वह लड़की थी, जिसने ग्यारहवीं तक गर्ल्स स्कूल में पढ़ने के बाद वारासिवनी के एकमात्र को-एड कॉलेज में प्रवेश लिया था। इसके पहले तक यहाँ ग्यारहवीं तक की शिक्षा ही किसी लड़की के लिए पर्याप्त समझी जाती थी। यही नहीं जब 1977 में मैं इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने रायपुर/जबलपुर गया तब वहाँ हमारे 240 के बैच में सिर्फ 6/8 सहपाठी लड़कियाँ होतीं थीं। 

स्पष्ट है तब बहन बेटियों (लड़कियों) के लिए हमारा समाज अति संकीर्ण विचार रखता था। उन्हें गृह सामग्री की तरह घर में ही सुशोभित देखना पसंद करता था। यह सब देख कर, बड़ा हुआ मैं भी सहज रूप से लगभग इसी विचार या स्वरूप में नारी के जीवन को देखता था। 

यद्यपि इंजीनियर हो जाने के कारण तब मेरे मनोमस्तिष्क (Mind-brain) में विज्ञान आधारित तर्कों ने स्थान बना लिया था। मैं आँखों की (स्थूल) दृष्टि में नारी और पुरुष को समान मनुष्य देखने लगा था। तब भी मानसिक (सूक्ष्म) दृष्टि, मेरी भी उनको लेकर आंशिक पूर्वाग्रहों से ग्रसित रही आई थी। इसका कारण तत्कालीन समाज मर्यादाओं में नारी के लिए अनेक वर्जनाएं थीं। 

किसी समय मैं प्रत्येक बेटी के लिए टीचिंग के जॉब को या अपने (होने वाले पति) के व्यवसाय में साथ को ही उचित मानता था। मैं उनको अकेले कहीं यात्रा (Travel) में जाने के लिए अनुमति देने में हिचकिचाता (Hesitation) था। मैं उन्हें पारंपरिक परिधानों में देखना चाहता था। 

ऐसे और भी अपने कई संकीर्ण विचार में उनका लालन-पालन करता था। मैं अनुभव/संशय करता था कि अपनी पत्नी, बेटियों को मैंने अति आधुनिकता की जीवन शैली की अनुमति प्रदान की तो, यह उनके भविष्य के लिए अहितकर तो नहीं हो जाएगी? 

मेरी बेटियां अपनी शिक्षा/अध्ययन में जैसे जैसे सफलता की सीढ़ियां तय कर रहीं थीं, वैसे वैसे मैं अपने उम्र के व्यक्तियों की अपेक्षा नारी को लेकर अधिक उन्नत (Advanced) विचार और दृष्टि रखने लगा था। 

बेटियां पढ़तीं गईं, बढ़तीं गईं थीं। उन्होंने भी पापा क्या चाहते हैं, इस बात को यथोचित महत्व दिया था। उन्हें ऐसा करते देख कर मुझे विश्वास हो गया था। मैं मानने लगा था, उन्हें किसी भी प्रकार की छूट दी जाए वे इस का प्रयोग अपने हित में ही करेंगी। तब मैंने, उन्हें अपने विवेक-बुद्धि से निर्णय करने के अवसर देना आरंभ कर दिए थे। 

अब नारी को लेकर, मैं अपने पूर्वाग्रही संकीर्ण विचारों से प्रायः प्रायः मुक्त होता जा रहा था। मैं आज की बेटियों का पापा होकर यह समझने लगा था कि नारी-पुरुष ‘तन’ ('Body') में तो कुछ अंतर होता है मगर दोनों के मन एवं मस्तिष्क (Mind & Brain) की संरचना (Structure) एक जैसी ही है। अर्थात उनकी (नारी-पुरुष की) बुद्धि, अभिलाषाएं, भावनाएं सुख-दुःख की अनुभूतियाँ और जीवन महत्वाकांक्षाएं लगभग एक समान हैं। 

अब मैं समझता हूँ अगर हम पैरेंट के दायित्व, बच्चों के समझदारी आने तक सही निभा चुकें हैं तब हमें बच्चों पर, बेटी (अर्थात नारी) होने के कारण, उन पर पाबंदियों (Restrictions) को (किसी सजा की तरह) अधिरोपित (Imposed) नहीं करना चाहिए। मुझे लगता है आज के बच्चे मुझसे अधिक प्रतिभाशाली हैं। उन्हें (मेरी उस उम्र में रही से) अब अधिक समझ होती है कि वे कहाँ क्या बोलें, क्या पहनें, क्या करें और किन मर्यादाओं का पालन करें।  

आज की बेटियां बिकिनी में स्विमिंग पूल में, तथा अपने गृहनगर /ससुराल की पारंपरिक वेशभूषा में, दोनों में एक जैसी सहज रह लेतीं हैं। वे पूर्व की नारियों से अधिक आत्मविश्वासी हैं। 

वे अब सही ‘नारी परिचय’ सामने रख पा रहीं हैं। वे दिखा रहीं हैं कि पूर्व में भी यदि नारियों को अवसर दिए जाते तो उनमें तब भी इतनी प्रतिभा थी, जिससे वे पुरुष जैसे ही जीवन आकाश एवं क्षितिजों तक समान उपलब्धियाँ प्राप्त कर रहीं हो सकतीं थीं। वे तब भी आज जैसे, ‘जीवन को सीमाओं’ में ही जीतीं मगर सीमाओं का विस्तार अधिक कर पातीं। 

अब उत्तरोत्तर समाज नारी को समान अवसर एवं अधिकार की दिशा में बढ़ता जाएगा। अब पुरानी पीढ़ी के लोगों को जिन्होंने समाज में नारी को गृह सीमाओं में जीवन यापन करते देखा है, इस बदले परिदृश्य में, अपने सहज रहने के लिए स्वयं में परिवर्तन लाने होंगे। अपनी पुरानी अच्छाई तो साथ रखनी होगी मगर पुरानी नारी को अपने से कम आँकने, मानने की दृष्टि बदलनी होगी।  

मुझे लगता है आज के बच्चे अति व्यस्त हैं। उन्हें बैकवर्ड कम्पैटिबिलिटी पर विचार करने का समय नहीं है। अब हम आज के बच्चों के साथ यदि सहज रहना (To cope up with) चाहते हैं तब हम पूर्व पीढ़ियों पर ही अपेक्षित और नैतिक दायित्व होता है कि हम अपनी वैचारिकता में भावी संगतता/अनुकूलता (Forward compatibility) को स्थान दें। 

मैं यह करता हूँ। मैं अब अपनी विचारशैली में आधुनिकता को स्थान देता हूँ। 

अब जब मैं मानता हूँ कि बहुत से जीवन मार्ग खराब/बुरे हैं तब मैं इन मार्गों पर नारी-पुरुष को चलते देखने पर दोनों को लगभग बराबरी का दोषी मानता हूँ। मैं एक पक्षीय दोष नारी पर नहीं रखता हूँ। बल्कि बुरे मार्ग में चलने के लिए नारी को प्रोत्साहित किए जाने के लिए, मैं अधिक दोष पुरुष में देखता हूँ। 

यह पुरुष ही है जो उकसावा एवं साथ न दे तो नारी खराबी के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित और विवश नहीं होती है।   


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Tragedy