बाबूजी की कुर्सी
बाबूजी की कुर्सी


रविवार का दिन था। मधु सुबह से ही घर की सफाई में बहुत व्यस्त थी।
"बहुत कबाड़ इकट्ठा हो गया है, आज सब कबाड़ी वाले को बेच देती हूँ "बोलती जा रही थी। तभी उसे कबाड़ वाले की आवाज सुनाई देती है, वो तुरंत बालकनी में जाकर उसे घर आने को कहती है।
पुराने डिब्बे, कपड़े, अखबार बहुत कुछ कबाड़ी को देते हुए उसकी नजर लाॅबी के कोने में रखी एक आराम कुर्सी पर पड़ती है, जो पुराने जमाने की तार से बुनी हुई कुर्सी थी।
वो कबाड़ी से कहती है, "भैया ये कुर्सी भी देनी है, बताओ इसे कितने रुपयों में लोगे "
कबाड़ी कुछ बोलता, उससे पहले राकेश अपने कमरे से बाहर आकर पूछता है, "कौन सी कुर्सी कबाड़ में दे रही हो मधु"
ये जो पुराने फैशन की बुनाई वाली कुर्सी कोने में कई सालो से पड़ी है, मधु कहती है।
राकेश का चेहरा देखने लायक होता है, वो गुस्से में बोलता है, तुमने सोच भी कैसे लिया इसे बेचने का और पुराने फैशन की कह रही हो, तुम्हे क्या हो गया है मधु?
मैंने कितनी बार कहा है कि ये बाबूजी की आराम कुर्सी, मुझे अपने साथ बाबूजी के होने का एहसास कराती है, मेरी बहुत सारी यादे इस कुर्सी से जुड़ी हैं।
तुम्हे पता है इसी कुर्सी पर बैठ कर बाबू जी दिन रात अपनी फाइलो में लगे रहते थे, हम पांच भाई बहनो को पालने के लि
ए मेहनत करते थे।
अपने व्यस्त समय में से कुछ समय निकाल कर इसी कुर्सी पर बैठे बैठे हम बच्चों को पढाते थे,हमारे साथ लूडो, सांप सीढी खेलते थे।
आज मैं जो मैंनेजर बना हूँ, हम सबकी ऐशो आराम की जिंदगी, बाबूजी ने हम बच्चों के लिए जो किया है, उसी का फल है।
मैं जब कभी थककर इस कुर्सी पर बैठता हूँ, तो मुझे अपार हौसला, हिम्मत ,शक्ति मिलती है। उनके साथ का अनुभव होता है।
जो तुम इसे पुराने फैशन की कह रही हो, तो अगर आज माँ बाबूजी जीवित होते तो तुम उन्हें भी पुराने फैशन का कहकर घर से निकाल देतीं, क्योंकि उनके और तुम्हारे ख्याल तो बिल्कुल नहीं मिलते।
वो भी बुनाई वाली कुर्सी के जमाने के ही होते।
अच्छा बताओ, इस कुर्सी में क्या कमी है, बल्कि ये तो ऐनटीक चीज है, जो बहुत कम घरो में मिलेगी, हम खुशनसीब हैं हमारे पास है।
घर की सुन्दरता बढाने के लिए हम अपने आदरणीय बड़े बुजुर्गो की निशानी को कबाड़ में बेच देते हैं।उनसे जुड़ी यादो और भावनाओं को दरकिनार कर देते हैं। सब कुछ कहते कहते राकेश बहुत भावुक हो गया।
तभी मधु को भी अपनी गलती का एहसास होता है और वो जल्दी से एक सुन्दर सी गद्दी उस कुर्सी पर डाल देती है। राकेश का हाथ पकड़ कर उस पर बैठाती है, और उसके आगे हाथ जोड़ कर खड़ी हो जाती है।