बंजारन माँ (लघुकथा)
बंजारन माँ (लघुकथा)
राधा चाची मेरे पड़ोस में रहती थीं। उनके चार बेटे और दो बेटियां थी। चाची के पति का देहांत हुए पंद्रह साल हो गए थे। उस समय चाची सत्तर साल की थीं। तभी से चाची बेटों के ऊपर बोझ बनकर बंजारन सा जीवन व्यतीत कर रही थीं। चाची को हड्डियों की बहुत पुरानी बीमारी थी। पुराने ख्यालात की होने के कारण चाची बेटियों के घर नहीं रहना चाहती थीं। कहती थीं कि समाज क्या कहेगा? चार बेटों के होते हुए भी मैं बेटी के घर रह रही हूं। बड़ा बेटा रोहित मुम्बई में रहता था। वो कुछ दिन ही मां को रखकर परेशान हो जाता था और सहारनपुर वाले दूसरे भाई मोहित को फोन पर कहता कि मैं बड़ा हूँ, तो क्या माँ बस मेरे पास ही रहेगी। अब कुछ दिनों के लिए तुम ले जाओ। मोहित कहता मेरे पास समय नहीं है। आप माँ को यहां छोड़ जाओ या फिर अकेले भेज दो। मैं एक महीना रख सकता हूँ। तीसरा बेटा शोभित अगरतला में रहता था। वो यह कहकर पीछे हट जाता था कि यहाँ पर मेडिकल सुविधा अच्छी नहीं है। माँ का इलाज न हो सकेगा। सबसे छोटे लोहित की पत्नी नौकरी करती थी। वह माँ का ध्यान नहीं रख सकती है। इसके साथ ही उसे मां को रखने के लिए अपना घर छोटा लगता था, लेकिन कभी कभी न चाहते हुए भी उसे माँ को रखना पड़ता था।
धीरे-धीरे राधा चाची का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। उम्र के साथ-साथ वह शरीर से भी कमजोर होती जा रही थीं,लेकिन वह शांत होकर सब कुछ सहन कर रही थीं। वह बहुत बेसहारा और महसूस करती थीं। वह अपनी बंजारन जिन्दगी को सोचकर हमेशा दुखी रहती थीं। रोगग्रस्त शरीर के साथ उनको एक बेटे से दूसरे बेटे के पास ढकेला जा रहा था। जबकि वह बुढ़ापे का जीवन किसी एक बेटे के पास रहकर शांति से बिताना चाहती थी ।
अभी कुछ समय पहले उनकी मृत्यु हो गई और उनके बंजारान जीवन को स्थाई ठिकाना मिल गया।
इंसान इतनी सी बात क्यों नही समझ पाता कि वो जैसा बोएगा वैसा ही काटेगा। बुढ़ापा तो आखिर सबका ही एक दिन आना है और किसकी कैसी परिस्थिति होगी कोई नहीं जानता।
राधा चाची के बंजारान जीवन को याद करके आज भी मेरी आँखें नम हो जाती हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि एक माँ छह बच्चों को पाल सकती है लेकिन छह बच्चे मिलकर एक माँ नहीं पाल सकते हैं।