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Nisha Nandini Bhartiya

Abstract Drama

5.0  

Nisha Nandini Bhartiya

Abstract Drama

अव्यक्त

अव्यक्त

6 mins
591



चार दिन के प्रवास पर में दिल्ली आई थी लाजपत नगर के एक होटल में रूकी थी । होटल की खिड़की जिस तरफ खुलती थी उस तरफ रिहाईशी

इलाका है । बड़ी- बड़ी कोटियों में धनी- मानी लोगों का निवास है । दोमंजिला, तीन मंजिला घर है बाहर का अहाता भी सजा हुआ है ।

मेरी यह बुरी आदत है कि मैं खिड़की खोल कर ही रखती हूँ, एयरकंडीशनर मशीन मुझे नहीं सुहाती है । ईश्वर प्रदत्त शुद्ध हवा का ही उपयोग मुझे बेहतर लगता है । प्रात: काल उठकर प्रकति को निहारने में जो आनंद है, दुनिया के सभी आनंद उसके आगे फीके लगते हैं । मैं कभी कभी तो सब कार्य भूल कर न जाने कितनी देर तक प्रकृति के अंग- अंग को अपनी पैनी निगाहों से पढ़ती रहती हूँ । पक्षियों का उड़ना, वृक्षों का हिलना,मंद- मंद पवन का मुझसे लिपटना कितना सुखद होता है।

सड़क पर लोगों की आवाजाई, घरों में कनकते बर्तन, पार्क में व्यायाम करते लोग यह संकेत देते हैं कि एक और सुंदर प्रभात हो गया । चारों तरफ अपने -अपने काम की आपाधापी शुरू हो जाती है ।

अपने व्यवहार के अनुकूल उस दिन भी में होटल के कमरे की बालकनी में

घूम घूम कर प्रकृति की किताब पढ़ रही थी कि तभी मेरी आँखें एक मकान की बालकनी में जाकर अटक गई । मैंने वहाँ का जो मंजर देखा तो मेरी रूह काँप गई । घर का मालिक दो लोगों की रस्सी पकड़ कर बालकनी में लाया और उनको वहां बाँध दिया । उनमें एक पशु ( कुत्ता ) था जिसके गले में रस्सी बंधी थी और दूसरी एक साठ सत्तर के दशक की एक बूढ़ी माँ थी, जिसके एक हाथ में रस्सी बंधी थी, उसको भी बालकनी के खंम्बे से बाँध दिया गया था ।

मैं हैरन परेशान दुखी होकर यह दृश्य देख रही थी कि तभी घर की मालकिन दोनों के आगे खाना रख गई । कुत्ते ने दो मिनट में ही खाना सफाचट कर दिया पर बूढ़ी माँ सिर्फ खाने को निहार रही थी ।यह दृश्य आँखों के कोर गीले करने के लिए काफी था । अब तो मेरी जिज्ञासा दुगनी हो गई, मैं साँसों को थामे सारा मंजर देख रही थी । अचानक घर की मालकिन ने आकर उस बूढ़ी माँ से ऊँची आवाज में कुछ कहा।पर मैं थोड़ा दूर होने के कारण समझ नहीं सकी । मुझे हार्दिक पीड़ा हो रही थी ।मैं एकटक उधर ही देख रही थी । मैं उस बूढ़ी माँ को बाँधने का रहस्य जानना चाहती थी ।

तभी तीन चार साल का एक बच्चा बालकनी में आया और उस बूढ़ी माँ की गोदी में बैठ गया । बूढ़ी भी बड़े प्यार से उसे चूमते हुए उससे बातें कर रही थी । मुझे लगा वह दादी और पोता थे । दोनों का प्यार देखकर मैं भाव विह्वल हो गई । मैं सब कुछ भूलकर उस प्यार में खो गई ।पोता भी कभी बूढ़ी को प्यार में मारता तो कभी उसके गालों को चूम रहा था,बड़ा सुखद दृश्य था।तभी घर की मालकिन

कुछ बड़बड़ाती हुई और बच्चे को बूढ़ी की गोद से खींच कर ले गई । मेरे अंदर एक कसक सी उठी । अब मैं उस बूढ़ी माँ के बारे में सबकुछ जानने के लिए व्याकुल हो उठी । किससे से पूछूँ.? क्या उस घर की तरफ जाऊँ ?

ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न मेरे मस्तिष्क में चक्कर काट रहे थे कि वैटर ने घंटी बजाई वह न्यूज पेपर देने आया था । मेरे विचारों को धरा पर उतरने का अवसर मिला गया । तत्क्षण मैं उसे बुला कर बालकनी के पास ले गई और हाथ में रस्सी बंधी उस बूढ़ी माँ को दिखाया । उस वैटर की कोई बहुत गहरी प्रतिक्रिया नहीं थी बल्कि वह बहुत ही सहज भाव बोला ओ इस पगली के बारे में पूछ रही हैं । यह बुढ़िया इनकी मां है, पागल हो गई है इसलिए यह लोग बाँध कर रखते हैं । अब मेरी जिज्ञासा तीव्र हो रही थी, मैं उस पागल माँ की व्यथा जानने के लिए बे

चैन हो गई ।

मैंने उससे कहा - तुम मुझे उसके पागल होने की पूरी कहानी बताओ तो वह बोला - वो दिपक उसके बारे सब जानता है । उसका घर वहीं पर हैं । मैं उसको भेज दूंगा वह सब बता देगा ।

यह कह कर वह चला गया, पर मेरा मन अब किसी काम में नहीं लग रहा था । पशु और इंसान को, वो भी एक माँ को एक ही श्रेणी में देखकर मैं पीड़ा से टूट रही थी क्योंकि मैं भी एक माँ हूँ । मैं उस माँ के लिए क्या करूँ यह सोच ही रही थी कि घंटी ने मुझे सचेत कर दिया । उठकर दरवाजा खोला तो देखा कि एक वैटर था जिसकी उम्र तीस पैंतीस के आस पास होगी बोला -आपने बुलाया है मैं दिपक हूँ । हाँ ! इधर बालकनी में आओ ।मैंने उसे बालकनी से उस बूढ़ी माँ को दिखाते हुए पूछा - इनके बारे तुम क्या जानते हो ? अब तक वह बुढ़िया वहीं बालकनी में जमीन पर सो गई थी। हाथ अब भी बंधा था ।

दिपक ने बताया कि यह कपूर साहब का घर है । यह कपड़े के बहुत बड़े व्यापारी थे। यह बुढ़िया इनकी माँ है । इनके पिता कुंदन कपूर की पत्नी हैं । इनके बड़े बेटे कपिल कपूर को सारा व्यापार पिता से विरासत में मिला है । इनके दो बेटे हैं छोटा बेटा निखिल कहीं विदेश में रहता है, जगह का नाम मुझे नहीं मालूम । यह बुढ़िया इनकी माँ है वह भी बहुत पढ़ी लिखी है, किसी ऑफिस में काम करती थी । दो साल पहले इनके पिता कुंदन कपूर की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी । उस सदमे को इनकी माँ बर्दाश्त नहीं कर सकीं और अपना मानसिक संतुलन खो बैठी।

मैं बड़े ध्यान से दिपक की बात सुन रही थी । मैंने दिपक से पूछा कि इन्हें बाँध कर क्यों रखा है तो दिपक ने बताया कि अब यह सारे दिन घर के सामान को इधर - उधर फेंकती रहती हैं । कभी अपने पति की कुर्सी के पास जाकर उनसे बातें करती हैं । कहती हैं- जी ! चाय पियोगे और रसोई में आकर चाय बनाने लगती हैं ।एक बार तो इन्होंने गैस खुली छोड़ दी थी, और उस पर खाली बर्तन रख दिया था । पूरे घर में आग लगाने से बच गई, सिर्फ रसोईघर का थोड़ा हिस्सा जल गया था । कभी घर से भाग जाती हैं । इसलिए यह लोग बांध कर रखते हैं ।

विदेश में रहने वाले बेटे के बारे पूछने पर दीपक ने बताया कि उसने माँ और भाई से संबंध तोड़ दिया है । एक बार माँ के रख रखाव को लेकर ही दोनों भाइयों के बीच बहुत झगड़ा हो गया था। तब से दोनों के बीच बातचीत भी खत्म हो गई । दीपक अपनी बात कहकर चला गया । उसे अपना काम करना था ,पर मैं मूर्ति वत उसी स्थान पर खड़ी बहुत देर तक सोचती रही ।

        दीपक से सारी कहानी सुनने के बाद मैं पीड़ा से कराह रही थी। मुझे लगा कि वह माँ मैं हूँ । आज हर बूढ़ी माँ की यही दशा है । जब तक पति के साथ है तब तक ठीक है । अकेले होते ही उसकी जिंदगी एक पशु से भी बेकार हो जाती है । बचपन में वह जिन बच्चों को अपनी छाती से लगाए घूमती थी वही बच्चे उसे बुढ़ापे रस्सी से बांध कर रखते हैं । इस अव्यक्त पीड़ा को सिर्फ एक माँ ही समझ सकती है वह भी जिसने पचास का दशक पार कर लिया हो और बच्चे विदेश में रहते हो ।

जब मेरी विचार धारा टूटी तो मेरी निगाह फिर उस बालकनी पर गई ।

दस बज चुके थे । बालकनी में धूप गहरा रही थी । गर्मी के दिन थे । पालतु कुत्ता और बूढ़ी माँ दोनों ही जमीन पर सो रहे थे । अनायास ही मेरी आँखों से अश्रुधारा बह रही थी । मैं अपनी मजबूरी को कोस रही थी। कुछ समय बाद बुढ़िया की बहु उस घर की मालकिन आई और दोनों की रस्सी पकड़ कर अंदर ले गई ।

मैं अव्यक्त पीड़ा लिए एकटक देखती रही ।

 


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