विडंबना
विडंबना
असम के दिनजान आर्मी केम्प में संजय सिंह और विशन सिंह बहादुर दो जवान रहते थे। दोनों की पत्नियाँ सुशीला और मनोरमा बहुत अच्छी मित्र थीं। दोनों के घर भी आमने सामने थे। दोनों परिवारों का आपस में गहरा उठना बैठना था। दोनों परिवारों में वस्तुओं का लेन देन भी चलता रहता था। बच्चे भी एक ही साथ पढ़ते और खेलते थे। दोनों जवानों में भाइयों जैसा प्यार था। दोनों ही जवान देश को समर्पित थे पर उन्हें कभी पुरस्कार आदि नहीं मिला था। जबकि उनके अन्य साथियों को मिल चुका था।
दोनों रात दिन अपने परिवार से ज्यादा अपने वतन के सपने देखते थे। उनकी दिली ख्वाहिश थी कि उनको जीते जी कोई सम्मान या पुरस्कार प्राप्त हो। कुछ समय बाद संजय की पोस्टिंग कश्मीर में और विशन सिंह की पंजाब में हो गई। पर दोनों के परिवार को जाने की अनुमति नहीं थी। दोनों के परिवार असम के दिनजान में ही थे। जिस समय विशन सिंह पंजाब में बागा बोर्डर पर जा रहा था। उस समय उसकी पत्नी मनोरमा उसकी दूसरी संतान को जन्म देने वाली थी। उसकी पहली संतान तीन साल की एक बेटी थी। विशन सिंह अपनी पत्नी को आश्वासन देकर की मैं जल्दी ही तेरी डिलेवरी तक आ जाऊँगा चल दिया। अब मनोरमा अपनी तीन साल की बेटी रिया के साथ अकेली थी। जैसे-जैसे उसकी संतानोत्पत्ति का समय समीप आ रहा था। उसकी चिंता बढ़ती जा रही थी। रुपए-पैसे भी अधिक नहीं थे और जब वह अस्पताल जाएगी। तब तीन साल की बेटी रिया को कौन देखेगा। आस-पास में उसका कोई रिश्तेदार भी नहीं था एक मात्र संजय की पत्नी सुश
ीला ही थी। वह उसे हिम्मत देती थी कि तुम चिंता मत करो सब ठीक हो जायेगा। मनोरमा का नवां महीन लग चुका था। उधर बागा बोर्डर पर गोलीबारी शुरु हो चुकी थी।
विशन सिंह पूरी मुस्तैदी से ईंट का जवाब पत्थर से दे रहा था। बोर्डर पार के कितने ही सैनिकों को उसने मौत के घाट उतार दिया था। बोर्डर पार की सेना परेशान होकर बौखला रही थी। एक रात
उन्होंने छिप कर धोखे से गोली- बारी शुरू कर दी। भारतीय सेना के बहुत से जवान मारे गए। उसमें वीर जांबाज विशन सिंह भी मारा गया। इधर विशन सिंह के गोली लगी और उधर उसकी पत्नी ने
पिता के समान नैन नक्श वाले सुंदर से पुत्र को जन्म दिया। सुशीला ने मनोरमा की हर तरह से सहायता की।
विशन सिंह को उसके अद्भुत कौशल के लिए परमवीर चक्र से सम्मानित किया। परिवार बहुत खुश था पर जिसको सम्मान मिला वह तो पुरस्कार व सम्मान की आस लिए शहीद हो चुका था। पत्नी ने सम्मान उसकी फोटो के पास रख दिया।
आज हमारे देश की यह कैसी विडंबना है कि चाहे पुरस्कार हो या सम्मान सब कुछ मरणोंपरांत ही मिलता है। क्या जीवित रहते हुए हौसला नहीं बढ़ाया जा सकता है।कल तक हम जिसको अपशब्द बोलकर बुरा भला कहते हैं। आज उसके मरते ही सब बुराइयां समाप्त हो जाती हैं। केवल अच्छाइयां ही दिखने लगती हैं। हम जीते जी किसी के गुणों को क्यों नहीं देख पाते हैं। इसका मुख्य कारण हमारा अंहकार है और हमारी नकारात्मक सोच है। हम पूरे जीवन भर स्वयं को छोड़कर दूसरो में सिर्फ कमियां ढूंढने में लगे रहते हैं।