बंधुआ दंश
बंधुआ दंश
पार्क था तो सरकार पर बहुत हरा भरा और व्यवस्थित था। घर के पीछे की सभी महिलाओं को सुबह शाम घूमती बतियाती थी। आज कुछ शब्द कान में सुनाई पड़े। सभी महिलाओं की वेदना एक सी होती है। चाहे शहरी हो या ग्रामीण, बल्कि गांव की महिला अपने दुख को कह कर अपना मन हल्का कर लेती है लेकिन हम तो वह भी नहीं कर सकते।)
हम तो सिर से पैर तक कृत्रिमता की चादर से ढके रहते हैं। यह शोवा नकलीपन धीरे-धीरे हमारे दिल को खोखला कर देता है। पुरुष वर्चस्व और सभी महिलाओं पर समान ही होता है।
हम सब महिलाएं जीवन भर बंधुआ दंश झेलते हुए अंतिम सीढ़ियां चढ़ जाती हैं। हम सब जीवन भर एक बंधुआ मजदूर से ज्यादा कुछ नहीं है। हमारा अपना व उदाहरण कहाँ है? पिता, पति और बेटे के वतन पर ही हमारा व पुरुष बैठता है।
आज नारी लिख कर अपने पैरों पर खड़ी है तो क्या उसका रेटेड पुरुष से ऊपर हो गया शायद नहीं, बस बात इतनी हुई कि अब वह दोहरा पड़ रही है। जिससे वह कभी कुंठित भी हो जाता है। बच्चों की परवरिश भी अधकचरी सी हो रही है। कहने को इक्कीसवीं सदी चल रही है, पर नारी का जीवन वहीं का वहीं सिमटा हुआ है। हाँ! विवाह-विदाई की दर जरुर बड़ी है पर पुरुष नहीं बदला है।
कुछ महिलाओं और जुड़ गए और इस चर्चा ने एक नीलाम का रूप ले लिया। कमला गुलाठी जो कॉलेज में प्रो। उन्होंने तब ली ही कक्षा ली।
प्राचीन काल में पुरुषों के साथ बराबरी की स्थिति से लेकर मध्ययुगीन काल के निम्न स्तरीय जीवन और इसके साथ ही कई सुधारकों द्वारा समान अधिकारों को बढ़ावा दिए जाने तक भारत में महिलाओं का इतिहास काफी मजबूत रहा है।
आधुनिक भारत में महिलाएं राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री लोक सभा अध्यक्ष, प्रतिपक्ष की नेता आदि जैसे शीर्ष पदों पर आसीन हुई हैं। भारत मे महिला की
स्थिति सदैव एक समान नहीं हो रही है। उनकी स्थिति में वैदिक युग से लेकर आधुनिक काल तक कई उतार-चढ़ाव आते रहते हैं और उनके अधिकारों में तपनरूप परिवर्तन भी होते रहते हैं। वैदिक युग में स्त्रियों की स्थिति सुदृढ़ थी। परिवार और समाज में उन्हें सम्मान प्राप्त था।उन्को शिक्षा का अधिकार प्राप्त था। सम्पत्ति में उन्हें बराबरी का हक था। सभा व समितियों में स्वतंत्र रूप से भाग लेती थीं। हालांकि कुछ उक्तियां भी हैं। जो महिलाओं के विरोध में दिखाई पड़ती हैं।
मैत्रीयसंहिता में स्त्री को झूठ का अवतार कहा गया है। ऋगवेद का कथन है कि स्त्रियों के साथ कोई मित्रता नहीं हो सकती है। उनके हृदय भेड़ियों के हृदय के समान हैं। ऋगवेद के अन्य कथन में स्त्रियों को दास की सेना का अस्त्र-शस्त्र कहा गया है। स्पष्ट है कि वैदिक काल में भी कहीं न कहीं महिलाएं नीची दृष्टि से देखी जाती थीं। फिर भी हिन्दू जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वह समान रूप से दृढ़ता और प्रतिष्ठित थे।
शिक्षा, धर्म, व्यक्तित्व और सामाजिक विकास में उसका महान योगदान था। असली रूप से स्त्रियों की अवनति उत्तर वैदिककाल से शुरू हुई। उन पर कई प्रकार के निर्योग्यताओं का आरोपण कर दिया गया। उनके लिए निन्दनीय शब्दों का प्रयोग होने लगा।उनकी स्वतंत्रता और उन्मुक्तता पर कई प्रकार के अंकुश लगाये लगे। मध्यकाल में इनकी स्थिति और भी दयनीय हो गयी। एक्सप प्रथा इस सीमा तक बढ़ गई कि स्ट्रियों के लिए कठोर एकांत नियम बना दिए गए हैं। शिक्षण की सुविधा पूर्णरूपेण समाप्त हो गई।
नारी के सम्बन्ध में मनु का कथन "पितरक्षति कौमारे न स्त्री स्वातंन्न्यम् अर्हति।" वहीं पर उनका कथन "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ', भी दृष्टव्य है। वस्तुतः यह समस्या प्राचीनकाल से रही है। धर्म, संस्कृति, साहित्य, ओंकार। , रीतिरिवाज और शास्त्र को कारण करार दिया गया है।
भारतीय दृष्टि से इस पर विचार करने की जरूरत है।पश्चिम की दृष्टि विचारणीय नहीं। भारतीय सन्दर्भों में समस्या के समाधान के लिए प्रयास तो अच्छे हुए हैं। भारतीय मनीषी समाना प्राधिकरण, समानता, प्रतियोगिता की बात नहीं है। वे सहयोगिता सहधर्मी, सहचारिता की बात करते हैं। इसी से परस्पर सन्तुलन स्थापित हो सकता है।
डॉ.मकला गुलाठी की बात सुनकर मीरा को बहुत आनंद आ रहा था क्योंकि मीरा भी रिटायर्ड प्रोफेसर थी। आज समाज सेवा द्वारा लोगों की समस्याओं को कर रही थी। उसे होने के नाते वह उन महिलाओं के समूह में गया और डॉ। कमला गुलाठी के ज्ञान की प्रशंसा करते हुए अपना परिचय दिया। सभी महिलाओं को डॉ। मीरा से अपनी बात करने के लिए लालायित हो रहे थे। मीरा
जी अपना पता देकर सबको नमस्कार करके अपने घर आ गई।
आज डॉ। मीरा बहुत बेचैनी से अपनी बालकनी में घूम रही थीं। पुरानी यादों में डूबा मन बहुत उदासीन हो रहा था। दोनों बच्चों के विवाह के बाद वे जीवन यापन कर रहे थे। साल में एक बार दोनों बच्चों बिलासपुर अपनी माँ की खोज खबर लेने आ जाते थे। उनके पति मोहन बंसल का देहांत हुए पंद्रह वर्ष हो गए थे। तबसे डॉ। बेलरा ने अकेले ही दोनों बच्चों का पालन पोषण किया है। बेटा अभय सिंगापुर की एक मल्टीनेशनल कंपनी में डायरेक्टर है। अच्छा वेतन मिलता है। उसके दो प्यारे से बच्चे हैं। बेटी अभिलाषा अपने पति के साथ दुबई में रहती है।
मीरा के पति रेलवे में इंजीनियर थे। जब दोनों बच्चे 10 और 15 साल के थे तब एक ट्रेन दुर्घटना में उनकी मौत हो गई थी। उस समय डॉ। मीरा कॉलेज में प्रोफेसर थे। पति की मौत से वह एकदम टूट गई थी। उन्होंने दोनों बच्चों को पढ़ाया लिखा अपने पैरों पर खड़ा किया फिर उनके द्वारा पंसद किए गए साथी से उनकी शादी कर दी और खुद पूरी तरह समाज सेवा में लग गए। बिलासपुर में उनका स्वयं का घर था। वह गांव गांव जाकर नारी की पीड़ा जनित बंधुआ दंश को देखती और स्थिति को सुधारने का भरसक प्रयत्न करती थी। उनके घर पर भी महिलाओं की भीड़ लगी रहती थी। वह सभी महिलाओं का उचित मार्गदर्शन करके उनका मनोबल बढ़ाती थीं। वे भारत में महिलाओं की स्थिति से बहुत दुखी थे। उन्होंने अपने एक कमरे में अपना कार्यालय बना रखा है। जहाँ बैठकर वह सुबह 10 बजे से शाम के 6 बजे तक निर्धन वर्ग के दुखड़े सुनती थीं और उन्हें उचित राय देकर उनका मनोबल बढ़ा दिया था।
मीरा जी 35 वर्ष कॉलेज में मनोविज्ञान की प्रोफेसर रही हैं। अत: वह लोगों को एक नजर से ही देखता है कि उनके दिमाग पढ़ गए थे। रविवार को आस-पास के गांव में जाते थे। वहाँ की महिलाओं के साथ बैठकर उनके दुख दर्द बांटती थे। अक्षर ज्ञान थे। वह कहती है कि हमारा असली भारत तो गांव में झुग्गी बस्तियों में बसता है। अगर किसी को कुछ देखना है, कुछ सिखाना है तो यहाँ आये और स्थिति का जायजा ले।
मोरन गांव की पार्वती की कहानी उनके दिल को हिला देती है। पार्वती 36 साल की उम्र में पांच बच्चों को पालती है। अल सुबह घर का काम काज निपटा कर सबसे छोटे बच्चे को पीठ में बाँधकर सेठ की नई बोली का ईट-गारा ढोती है। महावारी में भी सिर पर गारा और पीठ पर बच्चा लेकर इधर-उधर दौड़ती है। जब तक बच्चे अधर में होते हैं। तब तक नौ महीने तक इसी तरह काम करता रहता है। खाने के नाम पर दाल भी नसे नहीं है। जंगली साग और भात खाकर बच्चे जनती है। दोपहर की छुट्टी में अपने दूधमुँ को चावल उबालकर कर नमक डालकर कर खिलाती है।
पति रात-दिन शराब के नशे में धुत पड़ा रहता है। पार्वती के कुछ बोलने पर उसकी जमकर पिटाई करती है। पार्वती अपना बंधुआ दंश किसी से कह भी नहीं सकती क्योंकि यहां सिर्फ फोटो खींचने वाले ही रह गए हैं। वह अपनी नियति मानकर ईट गारे की तरह ही अपने जीवन को भी ढो रही है। एक- ढाई साल छोटे बड़े अपने पांच बच्चों को पाल रही है ।10 साल की बड़ी लड़की भी अब पार्वती के काम में हाथ बंटाने लगी है। मजदूरी के नाम पर दो रुपये उसे भी मिल जाते हैं। पार्वती को पुरुष वर्ग से कम मजदूरी मिलती है क्योंकि वह महिला है। पर काम पुरुष से ज्यादा करता है। समय से बीस मिनट पहले आ जाता है और आधा घंटा बाद जाता है। यह समाज में स्त्री का दंश है। यह दशन किसी को दिखाई क्यों नहीं देता है।
आज भी प्रेमचंद युग से बहुत अधिक बदलाव नारी में नहीं आया है। हर देश में, हर धर्म में, नारी की स्थिति दयनीय ही रही है। उसकी उपेक्षा, शोषण, अपमान, निंदा सदैव होती रही है। वह सदैव से अनुचरी थी और आज भी अनुचरी बनके अपना जीवन जी रही है। आज भी उसे स्वयं के लिए सोचने का हक नहीं है। पार्वती के विषय में सोचते सोचते मीरा की आंखें नम हो जाती हैं। वास्तव में ये आंखों का भीगना उसके अपने दुख को स्मरण करा देता है। बीस बरस की थी कि विवाह हो गया था। पति और ससुराल का दिया एक एक दर्द आज भी उसे साल जाता है। पति की दृष्टि में वह एक गुलाम से अधिक नहीं थी। उसके साथ बहुत कठोर व्यवहार किया जाता था। उसे असहनीय यातनाएं दी जाती थीं। उस मंजर को याद करके आज भी उसकी रूह कांप जाती है।
उसने तब अपना जीवन समाप्त करने की ठान ही ली थी। उसके पिता उसे स्टेशन से बेहोशी की अवस्था में लेकर गए थे। वह सात महीने की गर्भवती थी। जब पति और सास ने उसे घर से निकाल दिया था। माता-पिता ने सहारा देकर उसे पुनः पढ़ाया व उसके बच्चों की देखभाल की इसलिए आज मीरा को महिलाओं से बेहद सहानुभूति है और वह हमेशा उनके पुनरुत्थान के विषय में सोचती रहती है। उसे लगता है कि शिक्षा द्वारा अपने पैरों पर खड़ी होकर ही नारी इस बंधुआ दंश से मुक्त हो सकती है।