अटूट रिश्ता
अटूट रिश्ता
कृष्णा का मन घबराहट से बेचैन था। मदन जी अस्पताल के ऑपरेशन थियेटर में थे। दिल का दौरा पड़ा था उन्हें। किसी तरह विशाल की मदद से वह उन्हें यहाँ तक लाई थीं। उनकी सर्जरी चल रही थी।और कृष्णा जी बार बार आँखे बन्द कर हाथ जोड़ कर उनकी सलामती की प्रार्थना कर रही थीं। तभी डॉक्टर ने आकर ऑपरेशन सम्पन्न होने की सूचना दी। अभी वह बेहोश थे और मिलने की अनुमति भी नहीं थी। विशाल ने उन्हें घर चल कर आराम करने की सलाह दी, पर उनका मन नहीं मान रहा था। विशाल ने समझाया कि शाम तक मिलने की अनुमति नहीं है। शाम को वह लोग फिर आ जायेंगे। अभी यहाँ कमरा भी नहीं मिला है। बड़ी मुश्किल से स्वयं को समेट कर वह विशाल के साथ घर आ गयीं। निढाल सी बेड पर लेट गयीं थीं वह। विशाल की पत्नी ने बड़ी मिन्नतों से कुछ खिला पिला दिया। विशाल पिछले वर्ष ही उनके घर के प्रथम तल पर किरायेदार की हैसियत से रहने आया था। यहाँ आने से कुछ महीने पूर्व ही उसका विवाह हुआ था। अब उसकी पत्नी गर्भवती थी फिर भी इस संकट की घड़ी में दोनों पति पत्नी उनका संबल बने हुए थे।
लेटे लेटे पुराने दिनों की याद में खो गयीं कृष्णा।
कृष्णा और मदन जी बचपन से एक ही मोहल्ले में रहते थे। दोनों हमउम्र थे और पहली से पाँचवी कक्षा तक साथ पढ़े। दोनों परिवारों में भी मित्रता थी और एकदूसरे के घर आनाजाना था। इसलिये दोनों बच्चों में भी गहरी दोस्ती थी। जमाना पुराना था और दोनों ही परिवार रूढ़िवादी, छठी कक्षा में आते ही कृष्णा को कन्या पाठशाला में दाखिला दिलवा दिया गया। दोनों का स्कूल तो अलग हुआ ही कुछ दिनों बाद साथ खेलने पर भी प्रतिबंध लग गया। अब मोहल्ले में लड़कियों और लड़कों के अलग गुट बन गये थे। परन्तु मौका पाकर कृष्णा और मदन आपस में बात कर ही लेते। किशोरावस्था में आते आते दोनों एक दूसरे के प्रति अजीब सा आकर्षण महसूस करने लगे। अब तो दूजे को देखे बिना जैसे चैन ही नहीं आता था। बंदिशें बहुत थीं लेकिन आँखे चार करने का अवसर मिल ही जाता था। कक्षा एक ही होने से कभी कभी पुस्तकों के आदान प्रदान का बहाना ढूँढ लेते। उस पुस्तक के अन्दर गुलाब के फूल और पत्र भी होते थे ये घर वाले नहीं समझ पाये। कुछ वर्षों तक ऐसे ही चलता रहा। अब कृष्णा उन्नीस की हो चुकी थी और बीए के अन्तिम वर्ष में थी। घर वालों ने रिश्ते देखना प्रारंभ कर दिया था। मदन को वकालत की पढ़ाई करनी थी और पाँच छः बरस से पहले विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। घरवालों को इतने सालों तक टालना कृष्णा जी के बस की बात नहीं थी। वैसे भी उस जमाने में लड़कियों का अपने विवाह के विषय में कुछ भी बोलना अभद्रता मानी जाती थी। मदन भी अपने परिवार वालों से कुछ नहीं कह सके। वह यह जानते थे कि एक तो दोनों की जाति अलग, दूसरे कृष्णा दो माह बड़ी भी थीं, और तीसरी व सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि मदन अभी अपने पैरों पर नहीं खड़े थे तो कोई विरोध करते भी किस दम पर? फलस्वरूप एक पवित्र रिश्ता परवान चढ़ने से पहले ही समाज की बलि चढ़ गया।
कृष्णा विवाह करके ससुराल चली गयीं और मदन ने अपना सारा ध्यान पढ़ाई में लगा दिया।
मदन कृष्णा के बारे में किसी से बात भी नहीं करते थे फिर भी घरवालों से पता चलता रहता था कि वह एक बेटे और एक बेटी की माँ बन चुकी हैं। कभी कृष्णा मायके आती और गलती से सामने पड़ जाती तो भी मदन उसका हाल तक नहीं पूछते थे। वह भी नजरें चुरा लेती। पर दोनों के ही दिल में टीस अब भी बाकी थी।
मदन अब तक वकालत की दुनिया में कदम जमा चुके थे और उनके लिए बहुत अच्छे घरों से रिश्ते आ रहे थे कि एक हादसा हो गया। कृष्णा के पति का अचानक देहांत हो गया। सात बरस के वैवाहिक जीवन का अंत हो गया। उस समय कृष्णा का बेटा पाँच व बेटी तीन साल की थी। ससुराल वालों ने बेटा खुद रख कर कृष्णा को बेटी के साथ मायके भिजवा दिया। कृष्णा के पिताजी भी तब तक नहीं रहे थे। भाई भाभी के परिवार में वह एक अनचाहे मेहमान की तरह रहने आ गयी। हाँ माँ अवश्य थीं जो उसका दर्द समझ पाती थी पर वह तो स्वयं ही बेटे बहू पर निर्भर थीं। पति का अकस्मात जाना दुर्भाग्य था पर कृष्णा को सबसे ज्यादा जो बात खाये जा रही थी वह ये कि उनका बेटा उनसे छीन लिया गया था। वह सारा दिन रोती। मदन को अपने परिवार से जब यह सब पता चला तो वह स्वयं को रोक न सके और कृष्णा से मिलने आये। उन्हें देख कर कृष्णा भी स्वयं को सम्हाल न सकी और उनके कन्धे पर सिर रख कर फूट फूट कर रोई। वह बस यही कह रही थी कि कोई उसका बेटा दिला दो।
मदन से उसकी दशा देखी नहीं जा रही थी और उन्होंने कृष्णा से बेटा वापस दिलाने का वादा किया। यहाँ उनका रुतबा काम आया और बिना किसी केस के ही कृष्णा के ससुराल वालों ने बेटा लौटा दिया क्योंकि वे भी जानते थे कि बेटा तो कानूनी रूप से माँ को ही मिलेगा, ऊपर से एक नामी वकील कृष्णा के साथ है।
यह कृष्णा के ऊपर एक बहुत बड़ा उपकार था मदन का। इसके बाद मदन का उनके घर प्रायः रोज ही आना जाना प्रारंभ हो गया। मदन का दबा हुआ प्यार फिर से मुखरित होने लगा। कृष्णा पूरा संयम बरतती परन्तु मदन को देख कर उनका चेहरा खिल उठता और यह बात किसी की नजरों से छिप नहीं पाती थी। वैसे भी ऐसी बातों पर लोगों की इन्द्रियाँ अधिक सक्रियता से काम करने लगती हैं। शीघ्र ही उन दोनों का प्रकरण मोहल्ले भर के मनोरंजन का विषय बन गया। कृष्णा के भाई भाभी ने कृष्णा से मदन को घर में आने से मना करने को कहा। मदन के घर वाले भी जल्दी लड़की पसन्द करने को जोर डालने लगे थे।
इसी बीच मदन ने घरवालों से कृष्णा से शादी करने की बात कहके एक बड़ा धमाका कर दिया। कृष्णा ने पहले तो मना किया था पर अंत में मदन उन्हें मनाने में कामयाब रहे।
कृष्णा की माँ कह नहीं पा रही थीं पर वह इस बात से मन ही मन प्रसन्न थीं। भाई भाभी ने दुनियावालों की दुहाई अवश्य दी पर उन्हें भी कृष्णा व बच्चों के बोझ से मुक्ति मिलती नजर आ रही थी। परन्तु मदन के घर वाले तो इस रिश्ते पर मुहर लगाते भी तो कैसे? पहले की बात होती तो फिर भी जाति व उम्र का छोटा सा अंतर था, पर अब एक तो विधवा उस पर दो बच्चों की माँ,और वह भी उस सपूत के लिये जिसकी हाँ के लिए कितने ही परिवार पलकें बिछाये बैठे थे जो कि उनका घर दहेज से भर देते। पर सपूत ने चुना भी तो क्या? लेकिन मदन का आत्मनिर्भर होना इन सब पर भारी पड़ा।
घर वालों ने रिश्ते खत्म करने की धमकी भी दी पर मदन पर कोई असर नहीं हुआ। कोर्टमैरिज करके अलग गृहस्थी बसा ली। घर वाले अपनी बात पर जिन्दगी भर कायम रहे। दोनों ही परिवारों ने इन लोगों से सदा के लिए दूरी बना ली थी। जब तक कृष्णा की माँ रहीं तो चुपके से कभी मिल भी जाती आकर। पर अब उन्हें गुजरे भी वक्त बीत गया था।
मदन के साथ गृहस्थी सही मायने में खुशहाल थी कृष्णा की। दोनों बच्चों को उन्होंने सगे बाप का प्यार दिया। जब उन्होंने कृष्णा से कहा कि
"दो बच्चे हैं तो अपने। तीसरा मुझे नहीं चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि तीसरे के आने से मुझसे कोई भेदभाव हो जाये"
कृष्णा तो उनके आगे नतमस्तक ही हो गयीं थीं।
उन्होंने अपने पिता होने के सारे कर्त्तव्य पूरे किये। उच्च शिक्षा दिलाकर बच्चों की मनपसंद शादियाँ करवाईं। परन्तु बच्चों ने सिर्फ स्वार्थवश ही उन्हें पिता माना था। जैसे ही उनका जीवन सुचारु रूप से चल निकला तो पिता की बात तो जाने दो वो तो जन्मदात्री को भी भूल बैठे। दोनों ही विदेश में थे। पहले फोन पर बात कर लेते थे। अब तो वह भी न के बराबर ही था। यहाँ तक कि बच्चों के बच्चे खिलाने का सौभाग्य भी उन्हें नहीं मिला। वह लोग उन्हें लेकर कभी आये ही नहीं।
पैसे की कोई कमी नहीं थी कृष्णा और मदन के पास। लेकिन वृद्धावस्था में असुरक्षा की भावना घर करती जा रही थी। वह तो भला हो विशाल का, जबसे वह अपनी पत्नी के साथ रहने आया था इनदोनों के सूने घर में भी बहार आ गयी थी।
शाम घिरने लगी थी। विशाल की आवाज़ से ही वह वर्तमान में लौट आईं। वह अस्पताल चलने को कह रहा था। बेटे का फर्ज तो यह निभा रहा है जिसे कुछ समय पहले से ही जानते हैं वह दोनों। कृष्णा का मन ममता से भर उठा।
अस्पताल पहुँच कर जब मदन से मिलीं वह ठीक थे। उन्हें देख कर धीरे से मुस्कराये और हाथ उठा कर तसल्ली दी जैसे कह रहे हों घबराओ मत, इतनी आसानी से साथ नहीं छोड़ूंगा। कुछ ही दिनों में वह ठीक हो कर घर आ गये।
कुछ दिनों बाद विशाल की पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया।
कृष्णा और मदन ने धूमधाम से उसके नामकरण उत्सव की तैयारी की। कृष्णा ने अपने पुत्र व पुत्री को भी निमंत्रण पत्र भेजा जिसमें लिखा था कि 'पौत्र प्राप्ति के उपलक्ष्य में समारोह का आयोजन किया गया है और आप सबका आना प्रार्थनीय है।'
दोनों बच्चे अपना सा मुँह लेकर रह गये। उन्होंने जिस सौभाग्य से माता पिता को वंचित रखा वह सौभाग्य तो खुद चल कर उनके द्वार पर पहुँच चुका था।

