Priyanka Shrivastava "शुभ्र"

Drama

4.8  

Priyanka Shrivastava "शुभ्र"

Drama

अतीत के झरोखे से

अतीत के झरोखे से

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पापा आपके जन्मदिवस पर आपको नमन। आप तो हर दिन हमारे सांसों में बसे हैं, जन्मदिन तो बहाना है अपने उद्गार को सबों के सामने व्यक्त करने को। आपको याद करते-करते 

अतीत का दरवाजा खुल गया -

“आँखे बंद कर यादों के झरोखे से हम अतीत में भ्रमण कर आते हैं। काश कोई ऐसा झरोखा होता जिसे खोल हम वास्तव में अतीत में भ्रमण कर अपने खोए हुए परिजन से मिल, बैठ बातें कर पाते। अपनी और उनकी अधूरी इच्छा को पूरी कर साथ-साथ खुशियाँ मनाते। 

आज सुबह-सुबह अतीत का झरोखा अपने आप खुल गया। मैं पापा की लाडली बन उनके पास मंडराने लगी। कभी नन्हीं बालिका बन जिद्द करती तो कभी समझदार बन उन्हें नाश्ता और उनके पान के डब्बा का ख्याल करती। उस झरोखे ने मुझे मेरे बचपन के उस घर में पहुँचा दिया जो अभी तक के पूरे जीवन का सबसे बेकार घर था। सरकारी मकान होते हुए भी उसे सुविधाजनक बनाने को पापा सदा प्रयासरत रहे। 

पर यह कैसी विडंबना है कि वह घर, वो वक्त हमारे जीवन का सबसे सुखद वक्त था। छोटा शहर होते हुए भी शिक्षा की बहुत अच्छी सुविधा थी। अगल-बगल के परिवेश में मित्रगण बहुत अच्छे थे। आंगन के अमरूद के पेड़ को तो मैं भूल ही नहीं पाती। आज भी अपने को उस पेड़ पर चढ़ी पा रही हूँ। 

पेड़ पर चढ़ने से किसी के पापा नाराज होते होंगे। मेरे पापा तो मेरे साथ साथी बन नीचे से बता रहे हैं अमरूद पत्ते की किस झुरमुठ में छुपा बैठा है। हाथ नहीं पहुँच पा रहा। मैं एक हाथ से डाल पकड़ लटक कर पाँव से दूसरे डाल को खींच समीप ले आई। अहा अमरूद मेरे हाथ में। मैं ऊपर से अमरूद तोड़ नीचे गिरा रही हूँ, पापा उसे कैच कर रहें हैं। एक अच्छे प्लेयर की तरह एक भी कैच छूटता नहीं।

घर के सामने दूर तक पसरा खेत। एक तरफ मकई तो दूसरी तरफ मटर लगा हुआ। खुद ही कभी मटर तोड़ लाती तो किसी दिन मकई की बाली। पापा के अधिनस्त सभी कर्मचारी जानते थे कि खेत से फल तोड़ना बिटिया को पसंद है। अतः कोई भी मेरे काम में दखल नहीं देता। 

ओफ़ पलक झपक गई। पाँच साल आगे पहुँच गई। पहाड़ की तड़ाई में बसा यह छोटा सा गाँवनुमा शहर। जो शुरू में रास नहीं आ रहा था, क्योंकि यहाँ बड़े होने का आभास होने लगा था। यहाँ के लोगों की मानसिकता थोड़ी पुरानी थी। लड़कियों पर पहनावा से लेकर बाहर-भीतर आने-जाने, हर तरह की बंदिशे। मगर धीरे-धीरे इन बंदिशों को मेरे परिवार ने तोड़ दिया। हमारे साथ-साथ वहाँ की अन्य लड़कियों ने भी खुली हवा में सांस लिया।

मन के विपरीत जब होता है तो हर चीज अति लगती है। यहाँ बंदिशे उतनी भी भयावह नहीं थी जितनी मुझे लगती थी। हाई स्कूल की अच्छी सुविधा थी। दूर गाँव से भी लड़कियाँ स्कूल आती थी। बंदिशें मात्र इतनी थी कि स्कूल का कोई ड्रेस नहीं था। अलिखित निर्देश था कि लड़कियों को सलवार कुर्ता दुपट्टा के साथ स्कूल आना था। अलिखित निर्देश की जानकारी के अभाव में इन बंदिशों को तोड़ हम दोनों बहनें फ्रॉक पहन स्कूल जाने लगी। आनन-फानन में स्कूल के नए नियम बनाए गए जिसमें लड़का-लड़की सबों के लिए स्कूल ड्रेस बना। इस परिवर्तन से हम काफी प्रसन्न हुए और फिर यहाँ भी मन रम गया। 

स्कूल के सभी शिक्षक बहुत योग्य थे। अच्छी पढ़ाई का फल था स्कूल का रिजल्ट बहुत अच्छा होता। लड़कियाँ भी फर्स्ट डिविजन से पास करती। यहाँ से ही हम दोनों बहन मैट्रिक परीक्षा अच्छे नंबर से पास किए और पटना विश्वविद्द्यालय का रुख किए।

एक लंबे समय के बाद समय जैसे रुक गया था। बाबा और उनकी यादों को ढूंढने वाले मिले। बाबा की यादों को ढूंढते हुए हम वहाँ पहुँच गए जहाँ आकर मन उदास हुआ था। क्योंकि उस वक्त लगा इस शहर ने मेरा बचपना छीन लिया। ये नादानी थी, कोई कुछ छीनता नहीं बल्कि कुछ दे जाता है। ये छोटी सी जगह ‘मदनपुर’ भी ऐसा ही अनोखा था, जहाँ आते ही मन उदास हो गया था परंतु जब छोड़ने का वक्त आया तो गहन उदासी छा गई। एक लंबे अवधि के बाद इस जगह को यादों में बसा पुनः इसे देखने आई। वो घर, वो स्कूल सभी जगह अपनी पुरानी यादें ढूंढती रही। एक दो पुराने लोग भी मिले जिनके यादों में हम और हमारा परिवार बसा था।

यादों के झरोखों में भ्रमण करते हुए हमने कितनी सीपियाँ बटोरी जिनका कद्र तब नहीं था। सच जब कुछ खो जाता है तब उसकी महत्ता समझ में आती है। बाबा की अहमियत उस वक्त नहीं समझ में आई कि वे इतने बड़े व्यक्तित्व वाले हैं। तब तो वे केवल बाबा थे। आज जब लोगों से बातें होती है तब लगता है हमने क्या खोया। 

मदनपुर के लोगों के दिल में पापा के प्रति प्यार और विश्वास को देख लगा पापा क्या थे। ये अकाट्य सत्य है बच्चे सदा अपने माँ-बाप को सिर्फ अभिवावक के रूप में देखते हैं और बढ़ते उम्र में अकसर वे अपने को ज्यादा समझदार समझने की भूल करते हैं। 

झरोखे से दूर देखते-देखते जब सब कुछ धूमिल दिखने लगा तो नजर पीछे लौटने लगी। बाल्यावस्था से युवावस्था और फिर अब अधेड़वस्था में आ गई। अति निकट आने से फिर सब कुछ धुंधली दिखने लगती है। धुंधली चीज अकसर समझ में नहीं आती। अतः आगे का सफर फिर कभी…...


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