अति सूधो सनेह को मारग है
अति सूधो सनेह को मारग है
दुष्यंत, तुम्हारे बारे में मैंने तमाम कहानियाँ सुन रखी थीं। तुम लड़कियों में एक साथ ही लोकप्रिय और बदनाम दोनों थे पर उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा। पहली ही नजर में तुम मुझे अच्छे लगे और मन में तुम्हें आकर्षित करने की इच्छा जगी। शायद यह स्त्री पुरुष का आदम आकर्षण था। एक सुदर्शन पुरुष तो तुम हो ही, मैं भी एक सुंदर स्त्री कही जाती थी पर न जाने क्यों मैं तुम्हारे मुंह से यह सुनने की इच्छा पालने लगी। यह तब की बात है, जब मैं तुम्हें अच्छी तरह जानती तक नहीं थी। तुम्हारे बारे में कई किस्से सुनकर तुमसे ढेर -सारी बातें करने की इच्छा भी हुई, पर मैंने खुद को रोक लिया, पर एक दिन तुम एक गोष्ठी में दिख गए और मन में कुछ होने लगा। जी चाहा –काश, संभव होता तो मैं अपनी उम्र के पाँच-दस वर्ष पीछे चली जाती और तुम खिंचते हुए मेरे पास चले आते ....उस दिन तुम व्यस्त थे पर अपनी तेजस्विता, यौवन और पौरुष से दमकते और जब तुमने भाषण देना शुरू किया तो मैं मंत्रमुग्ध- सी तुम्हें देखती रह गयी ...यह तो वही पुरुष है, जिसकी मुझे तलाश थी। उस दिन पहली बार कसक –सी हुई कि काश, मेरे साथ अतीत की त्रासदी नहीं होती ...और फिर अतीत की काली परछाई ने हृदय में अंकुराते बीज को दबा दिया और न चाहते हुए भी मैं जल्दी घर लौट आई।
फिर एक दिन तुम किसी के घर मुझे मिल गए। उस दिन तुम्हें नजदीक से देखा। तुमने कुछ बातचीत भी की और मैं रूक-रूक कर तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर देती रही। तुम्हारी नंगी आँखों में एक आभा थी ....एक गहराई थी ....एक विस्तार था। मैं उन आँखों के लबालब को देखती रह गयी थी अपलक। उस दिन अपने मित्र से अपने देर से उठने का कारण ‘अकेलापन’ व ‘कोई उठाने वाला नहीं ‘ कहकर तुमने कुछ ऐसी गहरी नजरों से मुझे देखा कि मेरा हृदय ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा और जन तुम्हारी जेब से पेन नहीं मिला और मित्र ने इसकी शिकायत की तो, तुमने फिर मेरी तरफ देखते हुए कहा कि - ‘किसी ने प्रेजेंट ही नहीं किया अब तक’ और मेरे मन में यह भावना उठी कि मैं इन्हें पेन जरूर प्रेजेंट करूंगी। व्यस्त रहते हुए भी मेरा ध्यान बार-बार तुम्हारी बातों की तरफ जाता और मेरी कल्पना में रंग -भरी बारिश होने लगती, जिसमें मैं तुम्हारे साथ दौड़ती-भागती...लिपटती, पर एकाएक यथार्थ का एक पत्थर मेरी कल्पना के शीशे को चकनाचूर कर देता और उदास होकर मैं अपने कार्य में लग जाती।
और एक दिन किसी कार्यवश तुम्हारे घर जाने का मौका मिला ...मैंने उस दिन फैसला कर लिया कि अपना तमाम अतीत तुम्हारे सामने खोलकर रख दूँगी, कुछ न छिपाऊँगी, देखूँ फिर तुम पर कैसा असर होता है ?....जब मैंने तुम्हें सब कुछ बताया, तो तुम्हारी आँखों में नमी आ गयी और तुमने कहा –‘सब कुछ भूलकर नयी शुरूआत कीजिए। ’ ...नयी शुरूआत....तुम्हारे प्रगतिशील विचारों ने मेरे हृदय को सहारा दिया और मैं एक नयी लड़की बन गयी। अक्षत...अविवाहित नवयुवती की जो भावनाएँ मेरे भीतर दम तोड़ चुकीं थीं .....एक साथ खिलखिला पड़ीं और मैं विस्मृत कर बैठी अपना वह स्याह अतीत, अपना भविष्य और अपने वर्तमान का तुमसे अलग कोई अंश, यह सब कुछ तुम्हारे कारण हुआ था, दुष्यंत तुम्हारे ही कारण।
फिर हम मिलने लगे और यह जान गए कि दोनों का आकर्षण एक समान ही है। तुमने बताया कि तुम भी प्रथम दर्शन से ही मेरे प्रति आकर्षित हो और फिर तुमने मेरी हथेलियाँ चूमकर अपने प्यार का इजहार कर दिया ...। मेरे तन में एक अजीब -सी सिहरन दौड़ गयी ...एक अनोखा अहसास ...जिसने मेरी आँखों को ढेर सारे सपने दे दिए। नए वर्ष की शुभकामना में तो दोनों के अधर मिलकर एक हो गए थे, फिर तो मैं सब कुछ भूल गयी थी, हमारे बीच की दूरियाँ कम होती गईं। सीमाएं सिमटती गईं और मैं पूरी तरह तुम्हारे रंग में रंग गयी ...रात-दिन तुम्हारे ही सपने ....सर्वत्र तुम ही तुम। जब भी तुम्हारे पास होती, एक सम्मोहन में बंध जाती ...तुम स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के बारे में प्रश्न करते और मैं अनमनी होने पर भी उत्तर देती ...स्पर्श मात्र से तुम मदहोश होने लगते और एक हो जाने की बात करते, पर मैं बार-बार तुम्हें रोक देती। मुझे डर -सा लगता कि एक हो जाने के बाद की दूरी मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी। पास रहने पर यह सब होता और दूर जाने पर तुम्हारा प्यार याद आता और जी चाहता, दौड़कर तुम्हारी बाँहों में समा जाऊँ पर सीमाओं में जकड़े दो हृदय यदा-कदा मिलते और तड़प लिए ही अलग हो जाते।
हाँ,एक बात इस प्रेम-प्रसंग में मुझे खटक रही थी कि तुम्हारा शरीर तो बोलता था ...प्यार का इकरार-इजहार करता था, पर तुम खुद ‘आई लव यू‘ कहते भी डरते थे। तुम्हारी सिर्फ ‘देह की भाषा‘, ’देह की कविता‘ समझने वाली बात मुझे पीड़ित करती थी कि कहीं तुम मुझे सिर्फ देह ही तो नहीं समझते हो। एक ऐसा शरीर, जो अकलंक नहीं। जिससे सिर्फ शरीर की बात की जा सकती है,मन की बात नहीं। जिससे संबंध तो जोड़ा जा सकता है, अनुबंध नहीं।
तुम मुझसे कोई भी वादा नहीं करना चाहते थे। ना ही मेरे संघर्षों में साथ देना ...ना मुझसे विवाह करना। इसके सिवा तुम्हारे प्यार में कोई चालाकी ....कोई धूर्तता या बेवफाई नहीं थी।
बिलकुल निष्पाप और पवित्र आँखें, पर उनमें वह तड़पता प्यार भी नहीं होता, जिसे मेरी आँखें देखना चाहती थीं। मैं उन आँखों की भाषा समझ न पाने के कारण परेशान रहती थी ...न जाने तुम क्या थे, मैं तुम्हें जानना –समझना चाहती थी, पर तुम खुलते ही न थे, जिसके कारण अक्सर अजनबी से लगने लगते और यह अजनबीयत मेरे मन-मस्तिष्क को झकझोर कर रख देता।
कितनी अजीब बात थी कि तुममें ही एक अजनबी था,जो सिर्फ शरीर-शरीर चिल्लाता था, बेगानों सा व्यवहार करता था और अपने रूप –यौवन के प्रति आवश्यकता से अधिक गर्वित था। बड़ी-बड़ी अभिमान भरी बातें भी करता था और जिसकी निगाह में मैं कुछ न थी। थी तो एक युवा सुंदर शरीर ...थी तो एक पाषाणी, जिस पर वह अपनी कठोर बातों से लगातार वार करता था। मेरा हृदय छलनी होता जा रहा था। उसे इस बात का एहसास तक न था कि मैं भी एक इंसान हूँ ...स्त्री हूँ ...एक प्यार भरे हृदय की साम्राज्ञी, जिसके साथ नरमी से पेश आना चाहिए। वह एक स्वार्थी आदमी था, जिसे मेरी तकलीफ़ों, परेशानियों, मजबूरियों से ज्यादा अपनी प्रतिष्ठा, अपना सुख, अपना स्वार्थ प्यारा था। इस व्यक्ति ने मुझे मनोरोगी बना दिया, क्योंकि वह तुममें ही था और कभी-कभी तुम पर पूरी तरह छा जाता।
दुष्यंत, कौन हो तुम ?तुम क्यों नहीं खुलते?क्यों इतना कठोर आवरण चढ़ा रखा है अपने ऊपर ?इतनी कठोर परीक्षा न लो मेरी ...तुमने मुझे एक नयी राह दिखाई। साथ-साथ चले और अब उस स्वार्थी व्यक्ति को भी अपने साथ लिए चल रहे हो। नहीं दुष्यंत, उसे अपने से अलग कर दो, तुम वही बन जाओ पूर्ण रूप से, जो तुम हो और जो मैंने तुम्हें समझा था। मत चढ़ाओ अपने ऊपर आवरण ...अपने प्रकृत रूप में मेरे सामने आओ ...मुझे मृत्यु दंड मत दो....मत दो।
दुष्यंत, तुमने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया, तो पता नहीं उस हाथ में कुछ था या नहीं, पर जब मैंने तुम्हारी तरफ अपनी हथेलियाँ बढ़ाईं, तो उनमें मेरा हृदय था, मेरी तमाम खुशियाँ, तमाम गम थे, जिन्हें मैंने हृदय में गहरे दबा रखा था, ताकि कोई उन्हें छू न सके। पर तुम लगातार मुझे पुकारते रहे ...मैं भागती रही ...अनसुनी करती रही तुम्हारी आवाज। मैं ...लड़ती रही खुद से पर अंतत: पराजित हो गयी और तुमने मेरे हृदय में प्रवेश कर लिया। दुष्यंत तुम मुझे क्यों पुकारते रहे ....?पुकारा भी था ...या वह भी भरम था मेरा।
जानते हो दुष्यंत, मैं जितनी बार भी तुमसे मिली हूँ कठिन मानसिक संघर्ष के बाद मिली हूँ। उस स्वार्थी आदमी की बातें तुमसे अलग ही रहने को कहती हैं पर तुम्हारा प्यार मुझे हर बार तुम्हारे समीप कर देता है। मैं खुद तुमसे मिलने आती हूँ उसी आवाज पर ...उसी पुकार पर ...जिसे शायद तुम भी नहीं जानते ...पर मैं जानती हूँ ...पहचानती हूँ, तभी तो तुम्हारे इतने करीब हो जाती हूँ ....इतने करीब कि हमारी सांसें एक हो जाती हैं, हृदय एक साथ धड़कने लगते हैं। कहीं कुछ अंतर नहीं रहता और मेरी आत्मा का वह टुकड़ा, जो विधाता की भूल से तुम्हारे हृदय में चला गया था, तड़पकर एकाकार होने लगता है ...पर ऐसा कुछ ही क्षण होता है। उस स्वार्थी व्यक्ति का सम्मोहन टूटता है...और वह ऐसी बातें कहने लगता है कि मेरा हृदय टूक-टूक हो जाता है। जी चाहता है यहाँ से ऐसी जगह भाग जाऊँ...जहां थोड़ी शांति मिले ...यह किसे प्यार कर बैठी मैं ...तुम ऐसे क्यों हो दुष्यंत ? तुम्हें एक पल के लिए भी मेरा ख्याल क्यों नहीं आता ?...क्या मैं तुम्हारे योग्य नहीं ?या सच ही तुम मुझे मात्र मन बहलाव का साधन समझते हो ?
कहीं तुम्हारे भीतर भी तो यह ग्रंथि नहीं काम कर रही कि विवाह के लिए ही नहीं, प्रेम के लिए भी लड़की वर्जिन होनी चाहिए।
एक बार मैं तुम्हारे विवाहित मित्र के घर गयी, ताकि तुम्हारे विषय में उनसे बातें करूँ। मैं देख रही थी कि उनके मन में मुझे लेकर मधुर भाव पलने लगा है। उस दिन मैं उनसे सिर्फ तुम्हारी ही बातें करती रही थी। ईश्वर साक्षी है मेरी ईमानदारी का ...पर तुमने मुझ पर अविश्वास किया, तुम सोच भी नहीं सकते कि तुमने मुझे कितनी पीड़ा पहुंचाई। अपने संदेह को यद्यपि तुमने प्रकट नहीं किया पर वह भीतर ही भीतर मुझे खाता रहा और मैं अस्वस्थ रहने लगी। नाराजगी में कुछ दिन तुमसे मिली नहीं और खुद दुख पाती रही और जब तुम मिले और भावुक स्वर में बोले –‘मेरी याद नहीं आती ?’ तो सब कुछ भूलकर मैं बोल उठी –‘बहुत-बहुत याद आती है तुम्हारी। कई कविताएं लिखी हैं तुम पर। ’,तो तुमने कहा –मैं पढ़ूँगा, पढ़वाओगी मुझे ? मैंने हामी भर दी। और जब मैं तुम्हारे घर गयी तो तुम अकेले थे। मैंने कहा-कविताएं पढ़ोगे तो तुमने कहा –मैं देह की कविता पढ़ना चाहता हूँ। तुम कुछ न कहो, फिर भी तुम्हारा एक-एक अंग बोलता है। तुम्हारी आँखें तो बहुत बोलती हैं। तुम खुद जीती-जागती एक कविता हो।
हम पास बैठे ही थे कि वह स्वार्थी व्यक्ति जाग उठा और दुष्यंत गायब हो गया ...मैं फिर परेशान हो गयी। मुझे लगने लगा कि तुम्हारा प्रेम कामुक चाटुकारिता के सिवा कुछ नहीं। मेरा मन अशांत हो उठा ....और मैं लौट आई।
दुष्यंत, तुम्हारे भीतर छिपे उस चालाक, स्वार्थी, कायर आदमी से मैं त्रस्त हो चुकी हूँ। तुम पर पूर्ण विश्वास नहीं कर पा रही ...लगता है मेरे आने से तुम खुश नहीं होते। मुझसे मिलना भी नहीं चाहते ...तुम्हारी दृष्टि में मैं कुछ दिन का मन बहलाव हूँ। मेरा महत्व तुम्हारी दृष्टि में बस इसके सिवा कुछ नहीं कि तुम मेरी देह चाहते हो। नहीं दुष्यंत, मैं अपने स्त्रीत्व का यह अपमान नहीं सह सकती। मैं अब तुमसे कभी नहीं मिलूँगी ...कभी नहीं। मैं खुद को खत्म कर लूँगी पर तुमसे दया नहीं चाहूंगी ...सहानुभूति, दया...कृपा मुझे नहीं चाहिए। मैं इसका बोझ नहीं उठा सकती। अगर तुम्हें मुझसे प्यार होता तो मेरा मन इतना अशांत नहीं होता। तुम एक बार भी मेरा दुख समझने का प्रयास करते हो ?नहीं न, तुम डरते हो कि कहीं मैं तुमसे यह न कह दूँ कि मुझसे विवाह कर लो।
दुष्यंत, विवाह तो हमारा हो चुका ...उसी दिन ...जब तुमने अपनी बांहों का हार मेरे गले में डाला और मैंने तुम्हारे। भले ही तुम कहो –इतने से क्या हुआ ...पर क्या इससे अधिक एक स्त्री के लिए और कुछ होता है ....?तुम लाख कहो कि मुझे प्यार नहीं कराते। अपने आकर्षण ...अपने प्यार को छिपाओ। अपने -आपको धोखा दो। अपनी आत्मा का गला घोंट दो ...पर मैं अपने -आप को धोखा नहीं दे सकती। मेरी नैतिकता, मेरी आत्मा अभी मरी नहीं है। मैंने तुम्हें उसी दिन अपना सर्वस्व मान लिया था, जिस दिन तुमसे प्रेम हुआ और इसी भावना के कारण तुम्हारे इतने निकट हो गयी। तुम अगर यह समझते हो कि किसी लालच या दैहिक जरूरत के लिए तुम्हारे करीब हुई, तो यह तुम्हारी भूल है। मैंने सिर्फ प्यार नहीं किया तुम्हें, बल्कि स्वीकारा भी है उस अनाम....अदृश्य शक्ति के समक्ष ...पर तुम डरना नहीं ...मैं अपने इस संबंध को कभी उजागर नहीं करूंगी। तुम्हारी पद-प्रतिष्ठा, घर-परिवार सबका ध्यान रखूंगी। ....जब तक खुद न बुलाओगे ...मिलने नहीं आऊँगी। तुम्हारे रहते भी आजीवन अकेली रहूँगी। जब तुम्हें स्वीकारा है, तो तुम्हारे साथ तुम्हारी सारी सीमाओं को भी स्वीकारा है। तुम्हारे समस्त गुणों-अवगुणों को भी स्वीकारा है। तुम्हें तुम्हारे सम्पूर्ण परिवेश के साथ स्वीकारना ही मेरा कर्तव्य है। तुम मेरी बिलकुल चिंता न करना। मैं अपना संघर्ष अकेली ही जारी रखूंगी ...। तुमसे कभी सहयोग नहीं मांगूँगी। अपनी पिछली जिंदगी की परछाइयों से तुम्हें बचाऊंगी ....ये सब जो कुछ है ...तुमसे मिलने के पहले का है। जब से तुम मिले हो, तुम ही एक मात्र सच हो मेरे लिए। भले ही तुम विश्वास न करो ...मुझ पर कोई इल्जाम लगाकर पीछा छुड़ा लो ...। दुनिया की बातों में आ जाओ पर मैं हमेशा ऐसी ही रहूँगी ...तुम्हें चाहती...प्रेम करती ...तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता।
यदि भविष्य में कोई अन्य पुरुष मेरे जीवन में आएगा, तो वह मेरी विवशता पर तुम्हारे पौरुष पर एक प्रश्न चिह्न होगा। वैसे भी अब और कितना समय बचा है ?मेरे माथे पर लाल रंग तुम्हारे प्यार का रंग है। कभी पहचानो तो अपना कह लेना ....।

